विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दसप्तम अध्यायबलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्। हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन! मैं बलवानों की कामना और आसक्तिरहित बल हूँ। संसार में सब बलवान् ही बनते हैं। कोई दण्ड-बैठक लगाता है, तो कोई परमाणु इकट्ठा करता है, किन्तु नहीं, श्रीकृष्ण कहते हैं-काम और राग से परे जो बल है वह मैं हूँ। वही वास्तविक बल है। सब भूतों में धर्म के अनुकूल कामना मैं हूँ। परब्रह्म परमात्मा की एकमात्र धर्म है, जो सबको धारण किये हुए है। जो शाश्वत आत्मा है वही धर्म है। जो उससे अविरोध रखनेवाली कामना है, मैं हूँ। आगे भी श्रीकृष्ण ने कहा-अर्जुन! मेरी प्राप्ति के लिये इच्छा कर। सब कामनाएँ तो वर्जित हैं; किन्तु उस परमात्मा को पाने की कामना आवश्यक है अन्यथा आप साधन कर्म में प्रवृत्त नहीं होंगे। ऐसी कामना भी मेरी ही देन है।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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