विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दसप्तम अध्यायये चैव सात्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये। और भी जो सत्वगुण से उत्पन्न होनेवाले भाव हैं, जो रजोगुण और तमोगुण से उत्पन्न होनेवाले भाव हैं, उन सबको तू मुझसे ही उत्पन्न होनेवाले हैं, ऐसा जान। परन्तु वास्तव में उनमें मैं और वे मेरे में नहीं हैं। क्योंकि न मे। उनमें खोया हुआ हूँ और न वे ही मुझमें प्रवेश कर पाते हैं; क्योंकि मुझे कर्म स्पृहा नहीं है। मैं निर्लेप हूँ, मुझे इनमें कुछ पाना नहीं है। इसलिये मुझमें प्रवेश नहीं कर पाते। ऐसा होने पर भी- जिस प्रकार आत्मा की उपस्थिति से ही शरीर को भूख-प्यास लगती है, आत्मा को अन्न अथवा जल से कोई प्रयोजन नहीं है, उसी प्रकार प्रकृति परमात्म की उपस्थिति में ही अपना कार्य कर पाती है। परमात्मा उसके गुण और कार्यों से निर्लेप रहता है।
|
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
सम्बंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ सं. |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज