यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 358

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

सप्तम अध्याय

ये चैव सात्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि।।12।।

और भी जो सत्वगुण से उत्पन्न होनेवाले भाव हैं, जो रजोगुण और तमोगुण से उत्पन्न होनेवाले भाव हैं, उन सबको तू मुझसे ही उत्पन्न होनेवाले हैं, ऐसा जान। परन्तु वास्तव में उनमें मैं और वे मेरे में नहीं हैं। क्योंकि न मे। उनमें खोया हुआ हूँ और न वे ही मुझमें प्रवेश कर पाते हैं; क्योंकि मुझे कर्म स्पृहा नहीं है। मैं निर्लेप हूँ, मुझे इनमें कुछ पाना नहीं है। इसलिये मुझमें प्रवेश नहीं कर पाते। ऐसा होने पर भी-

जिस प्रकार आत्मा की उपस्थिति से ही शरीर को भूख-प्यास लगती है, आत्मा को अन्न अथवा जल से कोई प्रयोजन नहीं है, उसी प्रकार प्रकृति परमात्म की उपस्थिति में ही अपना कार्य कर पाती है। परमात्मा उसके गुण और कार्यों से निर्लेप रहता है।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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