विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दप्रथम अध्यायएतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन। हे मधुसूदन! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिये भी मैं इन सबकों मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिये कहना ही क्या है? अठारह अक्षौहिणी सेना में अर्जुन को अपना परिवार ही दिखायी पड़ा। इतने अधिक स्वजन वास्तव में क्या हैं? वस्तुतः अनुराग ही अर्जुन है। भजन के आरम्भ में प्रत्येक अनुरागी के समक्ष यही समस्या रहती है। सभी चाहते हैं कि वे भजन करें, उस परम सत्य को पा लें; किन्तु किसी अनुभवी सद्गुरु के संरक्षण में कोई अनुरागी जब क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के संघर्ष को समझता है कि उसे किनसे लड़ना है, तो वह हताश हो जाता है। वह चाहता है कि उसके पिता का परिवार, ससुराल का परिवार, मामा का परिवार, सुहृद्, मित्र और गुरु जन साथ रहें, सभी सुखी रहें और इन सबकी व्यवस्था करते हुए वह परमात्म-स्वरूप की प्राप्ति भी कर ले। किन्तु जब वह समझता है कि आराधना में अग्रसर होने के लिये परिवार छोड़ना होगा, इन सम्बन्धों का मोह समाप्त करना होगा तो वह अधीर हो उठता है। ‘पूज्य महाराज जी’ कहा करते थे- “मरना और साधु का होना बराबर है। साधु के लिये सृष्टि में दूसरा कोई जीवित है भी; किन्तु घरवालों के नाम पर कोई नहीं है। यदि कोई है तो लगाव है, मोह समाप्त कहाँ हुआ? जहाँ तक लगाव है उसका पूर्ण त्याग, उस लगाव के सहअस्तित्व मिटने पर ही उसकी विजय है। इस सम्बन्धों का प्रसार ही तो जगत् है, अन्यथा जगत् में हमारा क्या है?’’ ‘तुलसिदास कह चिद-बिलास जग बूझत बूझत बूझै।’[1] मन का प्रसार ही जगत् है। योगेश्वर श्री कृष्ण ने भी मन के प्रसार को ही जगत कहकर सम्बोधित किया है। जिसने इसके प्रभाव को रोक लिया, उसने चराचर जगत् ही जीत लिया- ‘इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।’[2] केवल अर्जुन ही अधीर था, ऐसी बात नहीं है। अनुराग सबके हृदय में है। प्रत्येक अनुरागी अधीर होता है, उसे सम्बन्धी याद आने लगते हैं। पहले वह सोचता था कि भजन से कुछ लाभ होगा तो ये सब सुखी होंगे। इनके साथ रहकर उसे भोगेंगे। जब ये साथ ही नहीं रहेंगे तो सुख लेकर क्या करेंगे? अर्जुन की दृष्टि राज्य सुख तक ही सीमित थी। वह त्रिलोकी के साम्राज्य को ही सुख की पराकाष्ठा समझता था। इसके आगे भी कोई सत्य है, इसकी जानकारी अर्जुन को अभी नहीं है।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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