विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दप्रथम अध्याययेषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च। हमें जिनके लिये राज्य, भोग और सुखादिक इच्छित हैं, वे ही परिवार जीवन की आशा त्याग कर युद्ध के मैदान में खड़े हैं। हमें राज्य इच्छित था तो परिवार को लेकर; भोग, सुख और धन की पिपासा थी तो स्वजन और परिवार के साथ उन्हें भोगने की थी। किन्तु जब सब-के-सब प्राणों की आशा त्याग कर खड़े हैं तो मुझे सुख, राज्य या भोग नहीं चाहिये। यह सब इन्हीं के लिये प्रिय थे। इनसे अलग होने पर हमें इनकी आवश्यकता नहीं है। जब तक परिवार रहेगा तभी तक ये वासनाएँ भी रहती हैं। झोपड़ी में रहने वाला भी अपने परिवार, मित्र और स्वजन को मारकर विश्व का साम्राज्य स्वीकार नहीं करेगा। अर्जुन भी यही कहता है कि हमें भोग प्रिय थे, विजय प्रिय थी; किन्तु जिनके लिये थी, जब वे ही नहीं रहेंगे तो भोगों से क्या प्रयोजन? इस युद्ध में मारना किसे है?- आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः। इस युद्ध में आचार्य, ताऊ-चाचे, लड़के और इसी प्रकार दादा, मामा, श्वसुर, पोते, साले और समस्त सम्बन्धी ही हैं।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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