यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 25

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

प्रथम अध्याय

येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च।।33।।

हमें जिनके लिये राज्य, भोग और सुखादिक इच्छित हैं, वे ही परिवार जीवन की आशा त्याग कर युद्ध के मैदान में खड़े हैं। हमें राज्य इच्छित था तो परिवार को लेकर; भोग, सुख और धन की पिपासा थी तो स्वजन और परिवार के साथ उन्हें भोगने की थी। किन्तु जब सब-के-सब प्राणों की आशा त्याग कर खड़े हैं तो मुझे सुख, राज्य या भोग नहीं चाहिये। यह सब इन्हीं के लिये प्रिय थे।

इनसे अलग होने पर हमें इनकी आवश्यकता नहीं है। जब तक परिवार रहेगा तभी तक ये वासनाएँ भी रहती हैं। झोपड़ी में रहने वाला भी अपने परिवार, मित्र और स्वजन को मारकर विश्व का साम्राज्य स्वीकार नहीं करेगा। अर्जुन भी यही कहता है कि हमें भोग प्रिय थे, विजय प्रिय थी; किन्तु जिनके लिये थी, जब वे ही नहीं रहेंगे तो भोगों से क्या प्रयोजन? इस युद्ध में मारना किसे है?-

आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा।।34।।

इस युद्ध में आचार्य, ताऊ-चाचे, लड़के और इसी प्रकार दादा, मामा, श्वसुर, पोते, साले और समस्त सम्बन्धी ही हैं।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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