यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 231

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


पश्यन्ती में मन को द्रष्टा के रूप में खड़ा करना पड़ता है; किन्तु साधन और उन्नत हो जाने पर सुनना भी नहीं पड़ता। एक बार सुरत लगा भर दें, स्वतः सुनायी देगा। ‘जपै न जपावै, अपने से आवै।’-न स्वयं जपें, न मन को सुनने के लिए बाध्य करें और जप चलता रहे, इसी का नाम है अजपा। ऐसा नहीं कि जप प्रारम्भ ही न करें और आ गयी अजपा। यदि किसी ने जप नहीं आरम्भ किया, तो अजपा नाम की कोई भी वस्तु उसके पास नहीं होगी। अजपा का अर्थ है, हम न जपें किन्तु जप हमारा साथ न छोड़े। एक बार सुरत का काँटा लगा भर दें तो जप प्रवाहित हो जाय और अनवरत चलता रहे। इस स्वाभाविक जप का नाम है अजपा और यही है ‘परावाणी का जप’। यह प्रकृति से परे तत्त्व परमात्मा में प्रवेश दिलाती है। इसके आगे वाणी में कोई परिवर्तन नहीं है। परम का दिग्दर्शन कराके उसी में विलीन हो जाती है, इसीलिये इसे परा कहते हैं।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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