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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द
चतुर्थ अध्याय
पश्यन्ती में मन को द्रष्टा के रूप में खड़ा करना पड़ता है; किन्तु साधन और उन्नत हो जाने पर सुनना भी नहीं पड़ता। एक बार सुरत लगा भर दें, स्वतः सुनायी देगा। ‘जपै न जपावै, अपने से आवै।’-न स्वयं जपें, न मन को सुनने के लिए बाध्य करें और जप चलता रहे, इसी का नाम है अजपा। ऐसा नहीं कि जप प्रारम्भ ही न करें और आ गयी अजपा। यदि किसी ने जप नहीं आरम्भ किया, तो अजपा नाम की कोई भी वस्तु उसके पास नहीं होगी। अजपा का अर्थ है, हम न जपें किन्तु जप हमारा साथ न छोड़े। एक बार सुरत का काँटा लगा भर दें तो जप प्रवाहित हो जाय और अनवरत चलता रहे। इस स्वाभाविक जप का नाम है अजपा और यही है ‘परावाणी का जप’। यह प्रकृति से परे तत्त्व परमात्मा में प्रवेश दिलाती है। इसके आगे वाणी में कोई परिवर्तन नहीं है। परम का दिग्दर्शन कराके उसी में विलीन हो जाती है, इसीलिये इसे परा कहते हैं।
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