यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 232

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय

प्रस्तुत श्लोक में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने केवल श्वास पर ध्यान रखने को कहा, जबकि आगे स्वयं ओम् के जप पर बल देते हैं। गौतम बुद्ध भी ‘अनापान सती’ में श्वास-प्रश्वास की ही चर्चा करते हैं। अन्ततः वे महापुरुष कहना क्या चाहते हैं? वस्तुतः प्रारम्भ में बैखरी, उससे मध्यमा और उससे उन्नत होने पर जप की पश्यन्ती अवस्था में श्वास पकड़ में आता है। उस समय जप तो श्यास में ढला मिलेगा, फिर जपें क्या? फिर तो केवल श्वास को देखना भर है। इसलिये प्राण-अपान मात्र कहा, ‘नाम जपो’-ऐसा नहीं कहा, कारण कि कहने की आवश्यकता नहीं है। यदि कहते हैं तो गुमराह होकर नीचे की श्रेणियों में चक्कर काटने लगेगा। महात्मा बुद्ध, ‘गुरुदेव भगवान’ तथा प्रत्येक महापुरुष जो इस रास्ते से गुजरे हैं, सभी एक ही बात कहते हैं। बैखरी और मध्यमा नाम-जप के प्रवेश-मात्र हैं। पश्यन्ती से ही नाम में प्रवेश मिलता है। परा में नाम धारावाही हो जाता है, जिससे जप साथ नहीं छोड़ता।

मन श्वास के साथ जुड़ा है। जब श्वास पर दृष्टि है, श्वास में नाम ढल चुका है, भीतर से न तो किसी संकल्प का उत्थान है और न बाह्य वायुमण्डल के संकल्प भीतर प्रवेश कर पाते हैं, यही मन पर विजय की अवस्था है। इसी के साथ यज्ञ का परिणम निकल आता है।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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