यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 230

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


प्रत्येक महापुरुष ने इस प्रकरण को लिया है। वेदों में इसका उल्लेख है-‘चत्वारि वाक् परिमिता पदानि’ (ऋग्वेद 1रु164/45, अथर्ववेद 9/15/27) इसी को ‘पूज्य महाराज जी’ कहा करते थे- “हो! एक ही नाम चार श्रेणियों से जपा जाता है-बैखरी, मध्यमा, पश्चन्ती और परा। बैखरी उसे कहते हैं जो व्यक्त हो जाय। नाम का इस प्रकार उच्चारण हो कि आप सुनें और बाहर कोई बैठा हो तो उसे भी सुनायी पड़े। मध्यमा अर्थात् मध्यम स्वर में जप, जिसे केवल आप ही सुनें, बगल में बैठा हुआ व्यक्ति भी उस उच्चारण को सुन न सके। यह उच्चारण कण्ठ से होता है। धीरे-धीरे नाम की धुन बन जाती है, डोर लग जाती है।

साधना और सूक्ष्म हो जाने पर पश्यन्ती अर्थात् नाम देखने की अवस्था आ जाती है। फिर नाम को जपा नहीं जाता, यही नाम श्यास में ढल जाता है। मन को द्रष्टा बनाकर खड़ा कर दें, देखते भर रहें कि साँस आती है कब? बाहर निकलती है कब? कहती है क्या?” महापुरुषों का कहना है कि यह साँस नाम के सिवाय और कुछ कहती ही नहीं। साधक नाम का जप नहीं करता, केवल उससे उठनेवाली धुन को सुनता है। साँस को देखता भर है, इसलिये इसे ‘पश्यन्ती’ कहते हैं।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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