विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दचतुर्थ अध्याय
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः। अर्जुन! ‘यस्य सर्वे समारम्भाः’- जिस पुरुष के द्वारा सम्पूर्णता से आरम्भ की हुई क्रिया (जिसे पिछले श्लोक में कहा कि अकर्म देखने की क्षमता आ जाने पर कर्म में प्रवृत्त रहनेवाला पुरुष सम्पूर्ण कर्मों का करनेवाला है। जिसके करने में लेशमात्र भी त्रुटि नहीं है।) ‘कामसंकल्पवर्जिताः’-क्रमशः उत्थान होते-होते इतनी सूक्ष्म हो गयी कि वासना और मन के संकल्प-विकल्प से ऊपर उठ गयी (कामना और संकल्पों का निरोध होना मन की विजितावस्था है। अतः कर्म कोई ऐसी वस्तु है, जो इस मन को कामना और संकल्प-विकल्प से ऊपर उठा देता है।), उस समय ‘ज्ञानाग्निदग्धकर्माणम्’-अन्तिम संकल्प के भी शमन के साथ, जिसे हम नहीं जानते, जिसे जानने के लिये हम इच्छुक थे उस परमात्मा की प्रत्यक्ष जानकारी हो जाती है। क्रियात्मक पथ पर चलकर परमात्मा की प्रत्यक्ष जाकारी का नाम ही ‘ज्ञान’ है। उस ज्ञान के साथ ही ‘दग्धकर्माणम्’-कर्म सदा के लिये दग्ध हो जाते हैं। जिसे पाना था पा लिया, आगे कोई सत्ता नहीं जिसकी शोध करें। इसलिये कर्म करके ढूँढ़े भी तो किसे? उस जानकारी के साथ कर्म की आवश्यकता समाप्त हो जाती है। ऐसी स्थितिवालों को ही बोधस्वरूप महापुरुषों ने ‘पण्डित’ कहकर सम्बोधित किया है। उनकी जानकारी पूर्ण है। ऐसी स्थितिवाला महापुरुष करता क्या है? रहता कैसे है? उसकी रहनी पर प्रकाश डालते हैं-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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