यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 218

Prev.png

यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


त्यक्त्वा कर्मफलासंग नित्यतृप्तो निराश्रयः।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित््करोति सः ।।20।।


अर्जुन! वह पुरुष सांसारिक आश्रय से रहित होकर, नित्यवस्तु परमात्मा में ही तृप्त रहकर, कर्मों के फल परमात्मा की आसक्ति को भी त्यागकर (क्योंकि परमात्मा भी अब भिन्न नहीं है) कर्म में अच्छी प्रकार बरतता हुआ भी कुछ नहीं करता।


निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।21।।

जिसने अन्तःकरण और शरीर को जीत लिया है, भोगों की सम्पूर्ण सामग्री जिसने त्याग दी है, ऐसे आशारहित पुरुष का शरीर केवल कर्म करता दिखायी भर पड़ता है। वस्तुतः वह करता-धरता कुछ नहीं, इसलिये पाप को प्राप्त नहीं होता। वह पूर्णत्व को प्राप्त है, इसीलिये आवागमन को प्राप्त नहीं होता।


Next.png

टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः