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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द
चतुर्थ अध्याय
इस यज्ञ में इन्द्रियों का दमन, मन का शमन, दैवी सम्पद् का अर्जन इत्यादि बताते हुए अन्त में कहा-बहुत से योगी प्राण और अपान की गति का निरोध करके प्राणायाम के परायण हो जाते हैं। जहाँ न भीतर से संकल्प उठता है और बाह्य वातावरण का संकल्प मन के अन्दर प्रविष्ट हो पाता है, ऐसी स्थिति में चित्त का सर्वथा निरोध और निरुद्ध चित्त के भी विलयकाल में वह पुरुष ‘यान्ति ब्रह्म सनातनम्’-शाश्वत, सनातन ब्रह्म में प्रवेश पा जाता है। यही सब यज्ञ है, जिसे कार्यरूप देने का नाम कर्म है। अतः कर्म का शुद्ध अर्थ है ‘आराधना’, कर्म का अर्थ है ‘भजन’, कर्म का अथ है ‘योग-साधना’ को भ्ज्ञली प्रकार सम्पादित करना-जिसका विशद वर्णन इसी अध्याय में आगे आ रहा है। यहाँ कर्म और अकर्म का केवल विभाजन किया गया, जिससे कर्म करते समय उसे सही दिशा दी जा सके और उस पर चला जा सके।
जिज्ञासा स्वाभाविक है कि कर्म करते ही रहेंगे या कभी कर्मों से छुटकारा भी मिलेगा? इस पर योगेश्वर कहते हैं-
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