भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 78

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भागवत धर्म मीमांसा

1. भागवत-धर्म

 
ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्तिभेदविभागिने।

परमात्मा ने अपने को तीन मूर्तियों में बाँटा है। ‘त्रिमूर्ति’ कहने पर ब्रह्मा, विष्णु, महेश याद आते हैं, लेकिन यह दूसरी त्रिमूर्ति है- ईश्वरो गुरुरात्मेति। ब्रह्मा, विष्णु, महेश तो ऊपर हैं। ब्रह्मा उत्पन्न करेगा, विष्णु पालन करेगा, तो रुद्र संहार। दुनिया में तीन शक्तियाँ काम कर रही हैं : उत्पादन-शक्ति, पालन-शक्ति और संहार-शक्ति। उनके अंश माने हुए ये तीन देवता हैं। पर यह त्रिमूर्ति अलग है। अभी हम जिस त्रिमूर्ति की बात करते हैं, वह है गुरु, परमात्मा और हम! तीनों एक हो जाएं।

यहाँ एक सवाल पैदा होता है। हम स्वयं को तो जानते हैं। परमेश्वर को भी कल्पना से जान सकते हैं। लेकिन गुरु न मिले तो क्या करें? गुरु तो अनुभवी होता है। गुरु यानि जिसे अनुभव हो। यदि वैसा अनुभवी गुरु न मिले तो क्या करें? गोरखनाथ को गुरु मिले मच्छीन्द्रनाथ। विवेकानंद को गुरु मिले रामकृष्ण परमहंस। लेकिन गुरु मिलें ही नहीं, तो क्या करेंगे?

इसके लिए सिखों ने एक उपाय, एक युक्ति खोज निकाली। भक्तों का पुराना ग्रंथ हो, तो उसी को गुरु मानें। ईसा मसीह को ही लीजिए। जिन्होंने उन्हें देखा, उनके वे गुरु हुए। पर हमें देखने को नहीं मिले तो क्या किया जाए? ईसा मसीह की ‘बाइबिल’ को ही गुरु मान लें। भगवान कृष्ण हमें मिलने वाले नहीं, तो ‘गीता’ को ही गुरु मान लिया जाए। ‘ग्रंथ को ही गुरु मानो’- कहकर सिखों ने यह मार्ग खोल दिया।

फिर सवाल आएगा कि ग्रंथ को पढ़े बिना गुरु कैसे मानें? यह तो अजीब बात होगी, इसलिए पहले ग्रंथ पढ़ना चाहिए। फिर उस ग्रंथ में ऐसी कोई बात हो, जो विचार और विवेक को पसंद न पड़े तो क्या किया जाए? इसलिए हमने युक्ति निकाली कि ग्रंथ का सार निकाल लो। भागवत इतना बड़ा ग्रंथ और उसमें अनेक प्रकार की चीजें पड़ी है। वह सारा बोझ सिर पर कौन उठाएगा? इसलिए उसमें से सार निकालो।


इसमें भी यह सवाल आएगा कि ग्रंथ का सार जिसने निकाला, वह अक्लवाला है या बेवकूफ? यदि कोई श्रद्धेय व्यक्ति हो और वह उसका सार निकाले तो उसे गुरु मानो।

लेकिन इससे भी बढ़िया एक युक्ति है, जो सबसे बढ़कर है। वह यह कि जहाँ कोई गुण दीखे, उसे उतने गुण के लिए गुरु मानो, और बातों के लिए नहीं। जैसे विषय-विशेष का प्रोफेसर उस विषय के लिए गुरु होता है, वैसे ही जिस मनुष्य में जो गुण हो, उस गुण के लिए उसे गुरु मानो। इसी का नाम है ‘गुण-गुरु’। इस प्रकार की आदत पड़ जाए तो हर मनुष्य में कोई न कोई गुण मिलेगा। वह गुण देखें और गुरु भावना रखें। गुण ही गुण देंखें, दोष नहीं। यह कला हाथ में आ जाए, तो जगह-जगह हमें एक-एक गुण के लिए एक-एक गुरु मिल जाएगा।


सारांश

जो ईश्वर से अलग है, उसे भय होता है। ‘द्वितीय’- भावना होती है, स्मरण हानि होती है। इसलिए हमें भक्ति सीखनी चाहिए। हम गुरु, परमात्मा और आत्मा को एक मानकर परमात्मा की भक्ति करें। उस भक्ति से स्मरण शक्ति तीव्र होगी, दुनिया के साथ प्रेम बनेगा और भय का निवारण होगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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