भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 77

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भागवत धर्म मीमांसा

1. भागवत-धर्म

 
(2.5) भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्यात्
ईशादपेतस्य विपर्ययोऽस्मृतिः।
तन्माययाऽतो बुध आभजेत् तं
भक्तयैकयेशं गुरुदेवतात्मा।।[1]

इस श्लोक में भय की मीमांसा (विचार) की है। भय कैसे पैदा होता है, तो कहते हैं : द्वितीयाभिनिवेशतः भयं स्यात्- अर्थात ‘द्वितीय भावना से भय होता है।’ हमसे भिन्न कोई दूसरा है, हम एक और वह दूसरा, ऐसी भावना से भय होता है। बच्चे अपनी परछाई से डरते हैं, क्योंकि उनकी भावना होती है कि वह छाया कोई दूसरी चीज है। उसे देखकर वे समझते हैं कि हमारे पीछे कोई लगा है। यही ‘द्वितीयाभिनिवेश’ है। भागवतकार कहना चाहते हैं कि ‘दुनिया में हमसे भिन्न कोई है ही नहीं, यह पहचानें तो भय रहेगा ही नहीं।’


‘दुनिया में हम ही हम हैं, दूसरा कोई नहीं’- ऐसी भावना होना तो बड़ा कठिन है। यह तो अद्वैत हो गया। अद्वैत सिद्ध होने पर भय समाप्त हो जाएगा, यह तो स्पष्ट ही है। फिर भी उसके लिए उपाय बताया जाए। पर वह उपाय भय-निवारण से भी कठिन हो तो किस काम का? इसलिए मेरा सुझाव है कि ‘द्वितीय’- भावना छोड़ नहीं सकते, तो जो दूसरे हैं, उनसे प्रेम करना सीखो। ‘द्वितीय’- भावना से भय पैदा होता है, पर यदि वह ‘द्वितीय’ हमारा प्रेमी हो, तो भय न होगा। उसे हम अपना प्रेमी बनायें, तो भी भय मिट जाएगा।


‘द्वितीय’- भावना किसे होती है? ईशाद् अपेतस्य- जो अपने को परमेश्वर से विमुख मानता है। जिसे मालूम है कि परमेश्वर के साथ मेरा संबंध जुड़ा हुआ है, वह शेर है। जिसे परमेश्वर से अलगाव मालमू होता है, जो परमेश्वर से दूर हो गया है, उसे विपर्ययः अस्मृतिः- विपरीत भावना और अस्मृति होती है। उसे आत्मा का भान नहीं रहता, वह अपना भान भूल जाता है। मनुष्य जब तक अपना भान रखेगा, उसकी प्रतिष्ठा बनी रहेगी। उसके कारण वह नीतिमार्ग पर चलेगा। लेकिन जहाँ मनुष्य अपना भान भूल जाता है, वहाँ क्या होगा? शराब पिये आदमी का क्या होता है? शराब पीने में मुख्य शराबी यही है कि उसमें आदमी अपने को भूल जाता है। उसे यह भी याद नहीं रहता कि यह मेरी बहन है या पत्नी है। इस तरह जिससे स्मरण-शक्ति पर ही प्रहार हो, उसे बहुत ही बुरा व्यसन मानना चाहिए। तो, जिसे आत्मा की स्मृति नहीं, वह प्रतिष्ठा खोयेगा। फिर उसे विपरीत भावना होगी, भय पैदा होगा।

भागवतकार आगे बताते हैः तन्मायया- भगवान की माया सर्वदा छायी हुई है। उसी के कारण यह सारा फंदा बनता है और उसमें आदमी फँस जाता है। इसलिए क्या करना चाहिए, तो कहते हैं: ‘बुद्धः ऐकया भक्त्या तम् ईशं आभजेत्’- बुधजनों को एकाग्र भक्ति से उस परमात्मा को भजना चाहिए।

कैसे भजेंगे, तो कहते हैं : गुरुदेवतात्मा- अपनी आत्मा, परमात्मा और गुरु- तीनों को एक समझकर। कहना यह चाहते हैं कि भगवान के विषय में आत्मीय भावना और गुरु भावना करनी चाहिए। भगवान तो हमारा स्वरूप ही हैं और हमारे गुरु भी हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत-11.2.37

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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