1. स ऐष जीवो विवर-प्रसूतिः
प्राणेन घोषेण गुहां प्रविष्टः।
मनो-मयं सूक्ष्ममुपेत्य रूपं
मात्रा स्वरो वर्ण इति स्थविष्ठः॥
अर्थः
यही वह जीव (‘जीवनतत्त्व, परमात्मा’) प्राण और घोषरूप से हृदयरूप गुफा में प्रवेश करता है। फिर मनोमय सूक्ष्मरूप धारण कर मात्रा, स्वर और वर्णरूप से अत्यंत स्थूल हो जाता है।
2. यथानलः खेऽनिलबंधुरूष्मा
बलेन दारुण्यधिमथ्यमानः।
अणुः प्रजातो हविषा समिध्यते
तथैव मे व्यक्तिरियं हि वाणी॥
अर्थः
जिस तरह अग्नि आकाश में केवल उष्मा के अव्यक्त रूप में रहता है, लकड़ी पर लकड़ी ज़ोर से घिसने पर वही वायु की सहायता पाकर चिनगारी का रूप धारण करती है और (उसमें) आहुति डालने पर ज्वालारूप से प्रकट होती है, इसी तरह यह वाणी वस्तुतः मेरा व्यक्त स्वरूप है।
3. ऐवं गदिः कर्म गतिर् विसर्गो
घ्राणो रसो दृक् स्पर्शः श्रुतिश्च।
संकल्पविज्ञानमथाभिमानः
सूत्रं रजः-सत्त्व-तमो-विकारः॥
अर्थः
इसी तरह बोलना, काम करना, चलना, मल-मूत्र त्यागना, सूँघना, चखना, देखना, छूना, सुनना, मन से संकल्प-विकल्प करना, बुद्धि से समझना, अहंकार द्वारा अभिमान करना, महत्-तत्त्व के रूप में सबमें ओत-प्रोत होना, इसी तरह सत्त्व, रज, तमोगुणों की विकारात्मक अवस्था (विकृति) होना (यह सब मेरा दृश्यरूप है)।
4. अयं हि जीवस् त्रिवृदब्जयोनिर्।
अव्यक्त ऐको वयसा स आद्यः।
विश्लिष्ट-शक्तिर् बहुधेव भाति
बीजानि योनि प्रतिपद्य यद्वत्॥
अर्थः
यह जीवन जो अव्यक्त, एक ही एक, अवस्था में सबसे बड़ा, ब्रह्मांडरूप कमल का कारण (ब्रह्मदेव) है, वही विस्तारित मायाशक्ति के द्वारा उस प्रकार अनेक सा भासता है, जिस प्रकार खेत में बोया गया बीज शाखा, पुष्प-पत्रादि अनेक रूप धारण करता है।