भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 21

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प्रस्तावना

8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु

1. नाति-स्नेहः प्रसंगो वा कर्तव्यः क्वापि केनचित्।
कुर्वन् विंदेत संतापं कपोत इवदीन-धीः॥
अर्थः
मनुष्य कभी किसी के साथ अति स्नेह या अधिक संपर्क न करे। मंदमति मानव यदि ऐसा करेगा, तो कबूतर की तरह वह संताप और दुःख उठाएगा।
 
2. सामिषं कुररं जघ्नुर् बलिनो ये निरामिषाः।
तदामिषं परित्यज्य स सुखं समविन्दत॥
अर्थः
किसी एक कुरर पक्षी को मांस का एक टुकड़ा मिल गया। दूसरे बलवान पक्षियों के पास उस समय खाने को नहीं था। इसलिए (उसके पास से वह मांस-खंड छीन लेने के लिए) वे उसे मारने लगे। अतः उस कुरर पक्षी ने मांस का वह टुकड़ा फेंक दिया। तब वह ( परेशानी से बचा और ) सुखी हो गया।
 
3. ग्रासं सुमृष्टं विरसं महान्तं स्तोकमेव वा।
यदृच्छयैवापतितं ग्रसेदाजगरोऽक्रियः॥
अर्थः
अनायास जो कुछ मिल जाय, फिर वह मधुर हो या नीरस, अधिक हो या कम, बुद्धिमान पुरुष उतना ही खाकर अजगर के समान जीवन-निर्वाह करे, विचेष्टाएँ, दौड़-धूप न करे।
 
4. गृहारंभो हि दुःखाय विफलश्चाध्रुवात्मनः।
सर्पः पर-कृतं वेश्म प्रविश्य सुखमेधते॥
अर्थः

नश्वर देह के लिए घर बनाने की झंझट में पड़ना अत्यंत कष्टकर और निष्फल है। साँप दूसरे के बनाये घर में घुसकर सुख से रहता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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