भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 26

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10. आत्म-विद्या

1. मयोदितेष्ववहितः स्वधर्मेषु मदाश्रयः।
वर्णाश्रमकुलाचारं अकामात्मा समाचरेत्।
अर्थः
मेरे द्वारा बताये हुए स्वधर्म में सावधानी से रहकर, मेरा आश्रय लेकर, निष्काम भाव से अपने वर्णाश्रमकुलाचार का अनुष्ठान करे।
 
2. अन्वीक्षेत विशुद्धात्मा देहिनां विषयात्मनाम्।
गुणेषु तत्त्व-ध्यानेन सर्वारंभ-विपर्ययम्।।
अर्थः
निर्मल बुद्धि के मनुष्य को सावधानी के साथ यह देखना चाहिए कि गुण (यानि इंद्रियों के विषयों) को सत्य समझने से विषयलोलुप मानव के सभी प्रयत्नों का फल उल्टा ही हुआ करता है।
 
3. निवृत्तं कर्म सेवेत प्रवृत्तं मत्परस् त्यजेत्।
जिज्ञासायां संप्रवृत्तो नाद्रियेत् कर्मचोदनाम्।।
अर्थः
मत्परायण होकर निवृत्त कर्म करे और प्रवृत्त कर्म त्याग दे। ब्रह्म-विद्या के लिए जिज्ञासा रखकर श्रुत्युक्त कर्म की प्रेरणा का भी आदर न करे।
 
4. यमान् अभीक्ष्णं सेवेत नियमान् मत्परः क्वचित्।
मदभिज्ञं गुरुं शांतं उपासीत मदात्मकम्।।
अर्थः

मेरा भक्त अहिंसा आदि यमों का निरंतर आचरण करे, नियमों का भी यथाशक्ति पालन करे और मुझे जानने वाले शांत सद्गुरु की मद्रूप भावना से उपासना करे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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