भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 48

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18. विशिष्ट सूचनाएँ

 
1. अर्थस्य साधने सिद्ध उत्कर्षे रक्षणे व्यये।
नाशोपभोग आयासस् त्रासश् चिंता भ्रमो नृणाम्॥
अर्थः
धन कमाते समय, कमा लेने के बाद उसे बढ़ाते समय, उसकी रक्षा और खर्च करते समय, उसके नष्ट होने या भोग द्वारा कम हो जाने पर मनुष्यों को कष्ट, भय, चिंता और भ्रम पैदा होते हैं।
 
2. स्तेयं हिंसानृतं दंभः कामः क्रोधः स्मयो मदः।
भेदो वैरमविश्वासः संस्पर्धा व्यसनानि च॥
अर्थः
चोरी, हिंसा, असत्य, दंभ, काम, क्रोध, गर्व, मद, भेद, वैर, अविश्वास, स्पर्धा और मद्य, जुआ तथा व्यभिचार- ये (तीन) व्यसन-
 
3. ऐते पंचदशानर्थ ह्यर्थ-मूला मता नृणाम्।
तस्मादनर्थमर्थाख्यं श्रेयोऽर्थी दूरतस् त्यजेत्॥
अर्थः
ये पंद्रह अनर्थ धन से पैदा होते हैं। इसलिए कल्याण के इच्छुक पुरुष को ‘अर्थ’ नामधारी अनर्थ को दूर से ही त्याग देना चाहिए।
 
4. देवर्षि-पितृ-भुतानि ज्ञातीन् बंधूंश्च भागिनः।
असंविभज्य चात्मानं यक्षवित्तः पतत्यधः॥
अर्थः
जो व्यक्ति देव, ऋषि, पितर, सर्वभूत, ज्ञाति- समाज और बंधुवर्ग आदि हिस्सेदारों के (तथा अपने) बीच धन का (उचित) बंटवारा नहीं करता, वह अधोगति प्राप्त करता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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