भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 79

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भागवत धर्म मीमांसा

1. भागवत-धर्म

 
(2.6) अविद्यमानोऽप्यवभाति हि द्वयो
ध्यातुर् धिया स्वप्नमनोरथौ यथा।
तत् कर्म-संकल्प-विकल्पकं मनो
बुधो निरुंध्यात् अभयं ततः स्यात्।।[1]

  • अविद्यमानः- वह नहीं है।
  • अपि- फिर भी।
  • अवभाति- भासित होता है।
  • द्योः- द्वैत।

वास्तव में द्वैत है ही नहीं, फिर भी वह भासमान होता है। द्वैत है नहीं, लेकिन ‘अपने से अलग दूसरा कोई है ही नहीं’- यह बात कोई नहीं मानता। फिर भी यदि इतना स्वीकार करें कि हमारा हित किसी के हित के विरुद्ध नहीं है, तो भी भागवत की पकड़ में आ जाएंगे, उसके जाल में फँस जाएंगे। यदि इतना मानेंगे कि हम सबका हित एक दूसरे के हित में है, दूसरे के हित के विरुद्ध नहीं है, तो शोषण (एक्सप्लायटेशन) खतम हो जाएगा। यही उद्देश्य है।

एक का हित दूसरे के हित के अविरुद्ध मानना कठिन नहीं। एक परिवार में अनेक लोग होते हैं। कई व्यक्तियों को मताधिकार होता है और हर एक का अलग-अलग मत रहता है। बिहार में तो हमने बड़ा मजा देखा। बड़े-बड़े परिवार होते हैं और एक ही परिवार में एक लड़का कांग्रेसी, दूसरा कम्युनिस्ट, तीसरा सोशलिस्ट, चौथा जनसंघी, तो पाँचवाँ सर्वोदय वाला होता है। यद्यपि घर वालों में इस प्रकार मतभेद होते हैं, लोग भिन्न-भिन्न पार्टियों के होते हैं, फिर भी घर में सब इकट्ठे रहते हैं। वे मानते हैं कि हमारे बीच किसी का हित किसी के विरोध में नहीं है, हमारा घर एक ही है। जिस प्रकार घरवाले समझते हैं कि हमारा सम्मिलित हित है, हित-विरोध नहीं है, उस प्रकार भी हम समझ सकें तो बहुत हो जाएगा। हम ग्रामदान वगैरह विचार समझाते समय यही बताते हैं कि अपना सारा गाँव एक परिवार समझो और एक दूसरे के हित को अच्छी तरह सुरक्षित रखो, तो तुम्हारा भला होगा। ‘मुझसे भिन्न कोई है ही नहीं’- यह भावना पैदा होना तो बहुत बड़ी बात है। वह भी होगी, किंतु प्रथम सम्मिलित हित की भवना बने। उसके बाद धीरे-धीरे वह भी बन जाएगी।

यह भासमान द्वैत कैसा है? यह बतलाते हैं।

  • ध्यातुः धिया- कल्पना करने वाले की बुद्धि से।
  • स्वप्नमनोरथौ यथा- जैसे स्वप्न और मनोरथ होते हैं।

स्वप्न में अनेक प्रकार के भेद हुआ करते हैं, पर वे सही नहीं होते। जाग जाने पर पता चलता है कि वह सब मिथ्या था, कुछ था ही नहीं। मनोरथों के भी अनेक प्रकार होते हैं। तरह-तरह की कल्पनाएँ होती हैं, लेकिन उनके समाप्त होते ही पता चलता है कि वह सारा कल्पना मात्र था। वैसे ही हमने जो भेद मान रखे हैं, द्वैत मान रखा है, वह वस्तुतः है ही नहीं।

भेद है ही नहीं, इसका प्रमाण चाहते हो, तो श्मशान में मिलेगा। वैसे तो लोग श्मशान भी अलग-अलग बनाते हैं- हिंदुओं का अलग, सिखों का अलग, पारसियों का अलग। इस तरह भले ही अलग-अलग श्मशान बनाओ, लेकिन इतना पक्का समझ लो कि आख़िर सब ख़ाक ही बनता है। ख़ाक में कोई भेद है नहीं। आप पहचान न सकेंगे कि यह बाबा की ख़ाक है या व्यास जी की, बिलकुल अद्वैत है। वहाँ एकता सिद्ध हो जाती है। हम कितना भी भेद मानें, आखिर सब ख़ाक होने वाला है, इसमें शक नहीं। इसलिए सारे भेद मिटा देने चाहिए।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत-11.2.38

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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