भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 132

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भागवत धर्म मीमांसा

7. वेद-तात्पर्य

मूर्ति ही भगवान है, यह भ्रम न रहे, इसलिए उसे अन्त में डुबो दिया जाता है। वेद कहता है कि आपने उपासना की, फिर उसकी आसक्ति हुई, तो अब उसे छोड़ दो।

पूछा जा सकता है कि आख़िर वेद यह सारा झमेला क्यों खड़ा करता है? यही सुझाने के लिए कि आख़िर हमें भगवान के पास पहुँचने की कोशिश करनी चाहिए। ये तो सारी सीढ़ियाँ हैं। संस्कृत में इसे ‘स्थूल- अरुन्धती -न्याय’ कहते हैं। आकाश में अरुन्धती का दर्शन कराते समय प्रथम सप्त ऋषियों के तारे दिखाये जाते हैं।[1] फिर उनमें से सबसे बड़ा तारा दिखाते और फिर कहते हैं कि “उस तारे के पास जो बारीक-सी छोटी तारिका है, वही ‘अरुन्धती’ है।” अरुन्धती के नाम से एक-एक तारा दिखाते और फिर उसका निरसन करते जाते हैं। ठीक यही पद्धति वेद की है। बच्चों को सिखाने की यह एक अद्‍भुत पद्धति है।

एक बार चर्चा चली - ‘इन्द्र का रूप कैसा होता है?’ कहा गया : ‘इं द् र्’ लिखो। यह इन्द्र का रूप है। अग्नि का रूप क्या है? ‘अ ग् नि’। यह एक प्रकार की उपासना है। ‘दूध दीजिये’ लिखकर एक कागज आपके पास भेजा और आप वह चिट्ठी पढ़कर कागज पर ‘दूध’ ये अक्षर लिख दें, तो क्या काम चलेगा? नहीं। चिट्ठी पढ़कर आप दूध देंगे। ‘दूध’ इन अक्षरों से आप ‘गाय का दूध’ जान लेंगे। मतलब यह कि ‘दूध’ ये अक्षर, आपकी उपासना हुई। इसी तरह जो सारा शिक्षण चलता है, जो साहित्य है, वह उपासना है। उसका अर्थ यही है कि मिथ्या अक्षरों पर यथार्थता की कल्पना करना। ‘दूध’ पर से ‘दूध’ जानना।

लेकिन कोई अंग्रेजी जानने वाला हो, तो वह ‘दूध’ पर से कुछ भी नहीं समझेगा। उसके लिए ‘मिल्क’ लिखना, कहना पड़ेगा। कोई कहता है : ‘मुझे शिवलिंग चाहिए।’ एक को शालग्राम मिलता है और दूसरे को शिवलिंग, तभी वह उस पर भावना कर पाता है। जैसे ‘दूध’ और ‘मिल्क’ ये अक्षर भिन्न हैं, पर वस्तु में फ़रक नहीं, वैसे ही ‘शालग्राम’ और ‘शिवलिंग’ भिन्न होने पर भी मूल वस्तु में कोई फ़रक नहीं है। यही अर्थ है – भगवान की उपासना का भी। भगवान कहते हैं कि आरम्भ में इन वस्तुओं का आधार लें, उपासना करें, पर अन्त में वह भी छोड़ दें।

एतावान् सर्ववेदार्थछ– यही सर्व-वेदों का अर्थ है। प्रथम मेरा जो भेदरूप है, उसका आधार लो : मां भिदाम् आस्थाय– यह कहकर, बाद में वेद उसी का निषेध करता है – प्रतिषिद्ध्य। पहले पकड़वाता है, बाद में अनुवाद करता है, उसके बाद निषेध करता है और अन्त में स्वयं वेद भी खतम हो जाता है। वेद कहता है कि अन्त में मेरा भी त्याग कर दो। नारद ने संन्यास का वर्णन करते हुए कहा है :

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कश्यप, अत्रि, भरद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वसिष्ठ – ये सात ऋषि हैं और अरुन्धती है वसिष्ठ की साध्वी पत्नी। यों तो यह अरुन्धती-दर्शन कभी किया जा सकता है, पर रात्रि में विवाह होने पर अन्त में वर-वधू द्वारा अरुन्धती-दर्शन से विवाह की सांगता की जाती है। यह ‘स्थूलारुन्धती न्याय’ वेदान्त में सुप्रसिद्ध है। - सं.

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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