भागवत धर्म मीमांसा11. ब्रह्म-स्थिति आत्मानम् आत्मस्थमति: न वेद – जिसकी बुद्धि आत्मनिष्ठ हो गयी, वह अपने को जानता ही नहीं। वह खड़ा रहता है, बैठता है, घूमता है, सोता है – इस तरह चार अवस्थाएँ बतायी हैं। ये चार अवस्थाएँ सभी जानते हैं। कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः । अर्थात सोनेवाला कलियुग में रहता है, बैठने वाला द्वापर में, खड़े होते हुए त्रेता में आता है और चलने लगे तो कृतयुग में पहुँच जाता है। खड़ा रहना, बैठना, घूमना, सोना – ये कर्म ज्ञानी भी करता है, जैसे कि दूसरे सांसारिक लोग। उक्षन्तम् – मल-मूत्र-विसर्जन आदि संस्कार यह करता है और अपना अन्न-भाग भी लेता है। इसके अलावा और भी कुछ करता है – किमपि ईहमानम्। ईह का अर्थ, करना या इच्छा है। ज्ञानी अपने स्वभाव के अनुसार और भी कुछ करता है : स्वभावमन्यत् किमपीहमानम्। फिर भी वह अपने को जानता नहीं। यानि वह नहीं जानता कि ‘ये क्रियाएँ मैं कर रहा हूँ।’ वे होती रहती हैं, पर उसे इसकी अनुभूति नहीं होती कि ‘मैं कर रहा हूँ।’ मुझे एक मिसाल याद आती है। गाड़ी के डिब्बे में दो आदमी थे। एक लेटा था, तो दूसरा घूम रहा था। लेटने वाले ने दूसरे से पूछा : ‘क्यों घूमते हो?’ तो उसने कहा : ‘गाडी की गति चालीस मील है और मैं चार मील की गति से चल रहा हूँ। दोनों गतियाँ इकट्ठी हो जाएँ तो 44 मील की गति आयेगी और मैं जल्दी पहुँचूँगा।’ यह है मनुष्य की मूर्खता! वह ईश्वर की गाड़ी में बैठा है और उसमें अपनी गति भी मिलाना चाहता है। यानि अहंकार ले लेता है। कर्ता तो ईश्वर है, लेकिन अहंकार के कारण हम व्यर्थ ही वह बोझ उठा लेते हैं।
ज्ञानदेव महाराज ने कहा है : रोम वाहूनि रोमा नेणें – हम अपने बालों का बोझ उठाते हैं, लेकिन वह बोझ महसूस नहीं करते। उसका भार हम पर नहीं आता। इसी प्रकार ज्ञानी जो कर्म करता है, उसका भार उसे नहीं होता। बालों के भार के समान वह सहज हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भागवत-11.28.31
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