भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 150

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भागवत धर्म मीमांसा

11. ब्रह्म-स्थिति

 
(28.8) तिष्ठन्तमासीनमुत व्रजन्तं
शयानमुक्षन्तमदन्तमन्नम् ।
स्वभावमन्यत् किमपीहमानं
आत्मानमात्मस्थमतिर् न वेद ॥[1]

आत्मानम् आत्मस्थमति: न वेद – जिसकी बुद्धि आत्मनिष्ठ हो गयी, वह अपने को जानता ही नहीं। वह खड़ा रहता है, बैठता है, घूमता है, सोता है – इस तरह चार अवस्थाएँ बतायी हैं। ये चार अवस्थाएँ सभी जानते हैं।

 कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः ।
उत्तिष्ठन् त्रेता भवति कृतं संपद्यते चरन् ॥

अर्थात सोनेवाला कलियुग में रहता है, बैठने वाला द्वापर में, खड़े होते हुए त्रेता में आता है और चलने लगे तो कृतयुग में पहुँच जाता है।

खड़ा रहना, बैठना, घूमना, सोना – ये कर्म ज्ञानी भी करता है, जैसे कि दूसरे सांसारिक लोग। उक्षन्तम् – मल-मूत्र-विसर्जन आदि संस्कार यह करता है और अपना अन्न-भाग भी लेता है। इसके अलावा और भी कुछ करता है – किमपि ईहमानम्। ईह का अर्थ, करना या इच्छा है। ज्ञानी अपने स्वभाव के अनुसार और भी कुछ करता है : स्वभावमन्यत् किमपीहमानम्। फिर भी वह अपने को जानता नहीं। यानि वह नहीं जानता कि ‘ये क्रियाएँ मैं कर रहा हूँ।’ वे होती रहती हैं, पर उसे इसकी अनुभूति नहीं होती कि ‘मैं कर रहा हूँ।’

मुझे एक मिसाल याद आती है। गाड़ी के डिब्बे में दो आदमी थे। एक लेटा था, तो दूसरा घूम रहा था। लेटने वाले ने दूसरे से पूछा : ‘क्यों घूमते हो?’ तो उसने कहा : ‘गाडी की गति चालीस मील है और मैं चार मील की गति से चल रहा हूँ। दोनों गतियाँ इकट्ठी हो जाएँ तो 44 मील की गति आयेगी और मैं जल्दी पहुँचूँगा।’ यह है मनुष्य की मूर्खता! वह ईश्वर की गाड़ी में बैठा है और उसमें अपनी गति भी मिलाना चाहता है। यानि अहंकार ले लेता है। कर्ता तो ईश्वर है, लेकिन अहंकार के कारण हम व्यर्थ ही वह बोझ उठा लेते हैं।


एक मिसाल और, जो मैं बहुत दफा कह चुका हूँ। एक मनुष्य घोड़े पर बैठा था। उसके पास सामान की गठरी थी। उसे लगा कि घोड़े का भार कुछ हलका करना चाहिए। तो, उसने घोड़े की पीठ पर की गठरी अपने सिर पर ले ली!


दुनिया का भार ईश्वर पर है ही। मनुष्य समझता है कि ईश्वर का कुछ बोझ कम करने के लिए थोड़ा भार मैं ही उठा लूँ। पर क्या यह हो सकता है? एक बार घोड़े का भार हम हलका कर सकते हैं, यदि घोड़े पर से उतर जाएँ। लेकिन ईश्वर का भार कम नहीं कर सकते, क्योंकि हम उसके सिर पर बैठे हैं। यह समझने की बात है, लेकिन यह न जानते हुए मनुष्य समझता है कि मैं ईश्वर का थोड़ा भार हलका कर दूँ। ज्ञानी पुरुष यह भार नहीं उठाता। वह अपनी आत्मस्थिति में बना रहता है।

ज्ञानदेव महाराज ने कहा है : रोम वाहूनि रोमा नेणें – हम अपने बालों का बोझ उठाते हैं, लेकिन वह बोझ महसूस नहीं करते। उसका भार हम पर नहीं आता। इसी प्रकार ज्ञानी जो कर्म करता है, उसका भार उसे नहीं होता। बालों के भार के समान वह सहज हो जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत-11.28.31

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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