भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 149

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भागवत धर्म मीमांसा

11. ब्रह्म-स्थिति

 
(28.7) करोति कर्म क्रियते च जन्तुः
केनाप्यसौ चोदित आनिपातात् ।
न तत्र विद्वान् प्रकृतौ स्थितोऽपि
निवृत्त-तृष्णः स्वसुखानुभूत्या ॥[1]

दीखता है कि प्रत्येक जन्तु यानि हर प्राणी दुनिया में कर्म करता है। वह कर्म करता है, इतना ही नहीं, उसके द्वारा कर्म किया जाता है। हमने पृथ्वी को लात मारी, तो हम ‘कर्ता’ बने। लेकिन (लात मारने से) ‘पाँव को जोर से लगा’ तो हम कर्म बने। मतलब यह कि हम दुनिया को बनाते जाते हैं तो दुनिया भी हमें बनाती है, यानि हम दुनिया द्वारा बनते हैं।

यहाँ कर्म का अर्थ ‘विक्रिया’ जैसा है – करोति कर्म क्रियते च। मनुष्य काम करता है। उस काम का उस पर उल्टा परिणाम होता है। वह चीज हम पर उल्टी आती है। कुल्हाड़ी लेकर पेड़ काटने लगे या हथौड़ी से पत्थर फोड़ने लगे, तो हाथ में फफोला हो आया। पत्थर तो हमने काटा, हम कर्ता बने, लेकिन पत्थर ने भी हमें काटा – फफोला किया, यानि हम कर्म बने। डॉ. धीरुभाई बाबा को ‘मसाज’ (मालिश) करता है। वह कर्ता है, लेकिन ‘मसाज’ करते-करते उसे पसीना आता है, तो वह कर्म बनता है। यानि कर्म का भी परिणाम होता है।


कर्म करते-करते प्राणी थक जाते हैं, फिर भी करते ही जाते हैं। चोदितः – किसी की प्रेरणा से कर्म करते ही जाते हैं। कब तक? मनुष्य रोज घर में पैसा डालता है, लेकिन उस घर को एक छेद है। किसी हौज को नीचे छेद हो और ऊपर से पानी डाला जाए, तो वह कभी भरेगा ही नहीं। ठीक ऐसे ही घर कभी भरता ही नहीं। वह ख़ाली ही रहता है। भरते-भरते बेचारा थक जाता है, फिर भी कर्म करता रहता है। कब तक? आनिपातात् – नीचे गिरने तक यानि मरने तक। निपात यानि मृत्यु।

विद्वान मनुष्य की क्या हालत है? वह भी प्रकृति में स्थित है, जैसे कि दूसरे लोग। फिर भी वह न कुछ करता है, न किसी से किया जाता है। वह कर्म के बन्धन में नहीं पड़ता, क्योंकि वह निवृत्त-तृष्णः है – नचाने वाली तृष्णा से मुक्त है। बुद्ध भगवान ने उसे ‘तण्णा’ कहा है। वह मनुष्य को नचाती है। पर विद्वान की तृष्णा निवृत्त हो गयी है। वह आत्मसुख की अनुभूति में मग्न है – स्वसुखानुभूत्या

आत्मसुख की यह अनुभूति हरएक को हो सकती है। कैसे? तो देखिये : दो क्रियाओं के बीच जो क्षण होता है, उस पर ध्यान दीजिये और उसे बढ़ाते जाइये। निद्रा तो गयी, लेकिन जागने के बाद का काम शुरू नहीं किया गया। इस बीच जो अवस्था होती है, उसमें आत्मस्थिति का भान हो सकता है। रात बीत गयी, लेकिन दिन नहीं निकला। इस बीच जो समय होता है, उसमें आत्मस्थिति का अनुभव हो सकता है। हम सांस अन्दर लेते हैं और बाद में बाहर छोड़ते हैं। इस लेने और छोड़ने के बीच जो थोड़े समय का फासला है, वह निर्विकार होता है। ज्ञानदेव महाराज ने उपमा दी है : जाड़ों के दिनों में नदी का जो रूप है, वह आत्मस्थिति है। बारिश में नदी को बाढ़ आती है और गरमी में नदी सूख जाती है। लेकिन जाड़ों के दिनों में नदी को न बाढ़ आती है, न सूखा। इस तरह बीच की अवस्था में मनुष्य को आत्मस्थिति का भान होता ही है।


बाबा को इसका अनुभव आया है। एक यात्रा हो गयी, दूसरी शुरू नहीं हुई थी, तो बाबा परंधाम में बैठा – स्वसुखानुभूत्या। यह बीच की जो स्थिति है, उसमें मनुष्य आत्मस्थिति में रहता है। यह समय बढ़ाते जाएँ, तो वह स्थिति आ सकती है – विद्वान् प्रकृतौ स्थितः – ज्ञानी प्रकृति में भी रहता है। सामान्य मनुष्य के नाते उसका खाना-पीना भी चलता रहता है। लेकिन वह अपनी ओर से न कोई कर्म करता है, न किसी कर्म का परिणाम उस पर होता है। वह न ‘कर्ता’ है और न किसी का ‘कर्म’ बनता है :

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत-11.28.30

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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