भागवत धर्म मीमांसा6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति आदरः परिचर्यायाम्– सेवा के लिए तत्पर रहना चाहिए। उसके लिए मन में आदर होना चाहिए। यह भागवत-धर्म की निष्ठा है और सर्वांगैः अभिवंदनम् – सर्वांग से नमस्कार करना चाहिए, यानि पूर्ण नम्रता होनी चाहिए। सब भूतों में भगवान हैं, यह भावना होनी चाहिए। सबमें रम रहिया प्रभु एकै! और जो-जो मेरे भक्त हैं, उनकी तो विशेष पूजा करनी चाहिए – मद्भक्त-पूजा अभ्यधिका ।
(19.12) मदर्थेष्वंगचेष्टा च वचसा मद्गुणेरणम् । अंगचेष्टा – शरीर की हलचलें। मदर्थे – मेरे लिए। यानि शरीर की जितनी हलचलें हों, सब मेरे लिए ही हों। हम शरीर की सारी हलचलें भगवान के लिए ही कर रहे हैं, ऐसी भावना होना साधारण बात नहीं। हम खाते हैं, पीते हैं, बोलते हैं, स्नान करते हैं, जो भी करते हैं, सारा भगवान के लिए। ऐसी कोई भी शारीरिक चेष्टा न हो, जो भगवान के लिए नहीं। यह शरीर भी भगवान के लिए ही है। इसलिए हमें ध्यान में रखना चाहिए कि भगवान की सेवा के लिए शरीर चले। इसी दृष्टि से हम खाते-पीते हैं। यदि हमारा भगवान से सीधा सम्बन्ध हो, तो यह बात सरल हो जाती है। अन्यथा हर चीज ईश्वर के लिए ही हो रही है, यह सधना मुश्किल जायेगा। वचसा मद्गुणेरणम् – वाणी से भगवद-गुणों का कथन। प्राणिमात्र गुण-दोषों का मिश्रण है। इसलिए हमें भगवान के ही गुण गाने चाहिए। मतलब यह कि भक्त सदैव गुणों का ही उच्चारण करेगा, किसी के दोष नहीं देखेगा। यदि दोष दिखाई दिया, तो उस पर नहीं सोचेगा। जहाँ कहीं गुण देखेगा, वहीं से उसे खींच लेगा। लोहचुम्बक जमीन पर पड़े अनेक प्रकार के कणों में से लोहे के कण ही खींच लेता है। ऐसी ही गुण-चुम्बक वृत्ति होनी चाहिए। मैं भगवान के गुणगान का यही अर्थ करता हूँ। ऐसा कोई प्राणी नहीं, जिसमें एक भी गुण न हो। मैं प्रायः मकान की मिसाल दिया करता हूँ। गरीब-से-गरीब के मकान को भी कम-से-कम एक दरवाजा तो होता ही है। बिना दरवाजे का मकान नहीं होता। वैसे ही हर मनुष्य में एक-आध गुण तो होगा ही। दोष दीवारों के स्थान पर हैं, तो गुण दरवाजों के स्थान पर। हृदय-प्रवेश दरवाजे से ही होगा। मतलब, किसी के हृदय में प्रवेश करने के लिए हमें उसमें एकआध गुण तो ढूँढ़ना ही होगा। यदि दोष ही देखेंगे, तो दीवार के साथ टकरायेंगे, अंदर प्रवेश न कर पायेंगे। हीन से हीन प्राणी में भी एकआध गुण है, उसी के आधार पर वह जीवन जी रहा है। गुण है, इसलिए अहंकार है। जीवन के लिए आधार ही नहीं रहेगा, यदि एक भी गुण उसमें न हो। यानि किसी में जीवन की प्रेरणा है, तो उसका होना ही उसमें गुण होने का प्रमाण है। गुण है, इसलिए जीवन की आकांक्षा है। तो, आप मेरे गुण ढूँढ़ें, मैं आपके ढूँढूँगा। इसमें आपका और मेरा, दोनों का मेल है। यही अर्थ है निरन्तर भगवद-गुणगान का। फिर कहा है – मय्यर्पर्ण च मनसः सर्वकाम-विवर्जनम् – सब प्रकार की कामनाएँ छोड़कर मुझमें अपने मन का समर्पण कर दें। वास्तव में यह कहने की आवश्यकता ही नहीं थी, क्योंकि जहाँ वाणी से ईश्वर का गुणगान और शरीर से सेवा होगी, वहाँ सब कामनाएँ छोड़ देना कोई बात नहीं। लेकिन हमारे जैसे श्रद्धावान मानते हैं कि भगवान ने यह कहा है, तो उनके कहने में भी कुछ उद्देश्य है। आपने अंगचेष्टा, वाणी, मन ईश्वर को अर्पण कर दिये; लेकिन इसकी कसौटी क्या होगी? कसौटी यही होगी कि आपकी सब कामनाएँ खतम हो गयीं। सर्वकाम-विवर्जनम् – यह खरी कसौटी (एसिड टेस्ट) है। कामना-मुक्ति भगवद्भक्ति की कसौटी है। मन भगवान को अर्पण करना भक्ति के प्रारम्भ में होता है। लेकिन उसकी कसौटी है, कामना-मुक्ति। यह बहुत महत्त्व की चीज है, जिसका भगवान आगे गौरव कर रहे हैं। वे कहते हैं : |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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