भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 123

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भागवत धर्म मीमांसा

6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति

 
(19.11) आदरः परिचर्यायां सर्वांगैर् अभिवंदनम् ।
मद्‍भक्त-पूजाऽभ्यधिका सर्व-भूतेषु मन्मतिः ॥[1]

आदरः परिचर्यायाम्– सेवा के लिए तत्पर रहना चाहिए। उसके लिए मन में आदर होना चाहिए। यह भागवत-धर्म की निष्ठा है और सर्वांगैः अभिवंदनम् – सर्वांग से नमस्कार करना चाहिए, यानि पूर्ण नम्रता होनी चाहिए। सब भूतों में भगवान हैं, यह भावना होनी चाहिए। सबमें रम रहिया प्रभु एकै! और जो-जो मेरे भक्त हैं, उनकी तो विशेष पूजा करनी चाहिए – मद्‍भक्त-पूजा अभ्यधिका


इतनी भेदभाव रखना होगा। उन्हें डर लगा कि आप भक्त और अभक्त में भेद नहीं करेंगे, तो क्या होगा? सबके लिए हरि-भावना रखना ठीक ही है। लेकिन जो चरित्रवान हैं, शीलवान हैं, उनकी अधिक पूजा होनी ही चाहिए। घोड़े को आप घास खिलाते हैं, ब्राह्मण को नहीं। उसे तो अनाज ही खिलायेंगे। घोड़े को खिलाने की घास ब्राह्मण के सामने रखेंगे तो क्या होगा, समझने की बात है। भगवान बता रहे हैं कि भूतों में भेदभाव नहीं होना चाहिए, लेकिन उसमें भी विवेक अवश्य रखना चाहिए। इसीलिए कहा है – सर्व-भूतेषु मन्मतिः, मद्‍भक्तपूजा अभ्यधिका।

 (19.12) मदर्थेष्वंगचेष्टा च वचसा मद्गुणेरणम् ।
मय्यर्पणं च मनसः सर्वकाम-विवर्जनम् ॥[2]

अंगचेष्टा – शरीर की हलचलें। मदर्थे – मेरे लिए। यानि शरीर की जितनी हलचलें हों, सब मेरे लिए ही हों।

हम शरीर की सारी हलचलें भगवान के लिए ही कर रहे हैं, ऐसी भावना होना साधारण बात नहीं। हम खाते हैं, पीते हैं, बोलते हैं, स्नान करते हैं, जो भी करते हैं, सारा भगवान के लिए। ऐसी कोई भी शारीरिक चेष्टा न हो, जो भगवान के लिए नहीं। यह शरीर भी भगवान के लिए ही है। इसलिए हमें ध्यान में रखना चाहिए कि भगवान की सेवा के लिए शरीर चले। इसी दृष्टि से हम खाते-पीते हैं। यदि हमारा भगवान से सीधा सम्बन्ध हो, तो यह बात सरल हो जाती है। अन्यथा हर चीज ईश्वर के लिए ही हो रही है, यह सधना मुश्किल जायेगा।

वचसा मद्गुणेरणम् – वाणी से भगवद-गुणों का कथन। प्राणिमात्र गुण-दोषों का मिश्रण है। इसलिए हमें भगवान के ही गुण गाने चाहिए। मतलब यह कि भक्त सदैव गुणों का ही उच्चारण करेगा, किसी के दोष नहीं देखेगा। यदि दोष दिखाई दिया, तो उस पर नहीं सोचेगा। जहाँ कहीं गुण देखेगा, वहीं से उसे खींच लेगा। लोहचुम्बक जमीन पर पड़े अनेक प्रकार के कणों में से लोहे के कण ही खींच लेता है। ऐसी ही गुण-चुम्बक वृत्ति होनी चाहिए। मैं भगवान के गुणगान का यही अर्थ करता हूँ।

ऐसा कोई प्राणी नहीं, जिसमें एक भी गुण न हो। मैं प्रायः मकान की मिसाल दिया करता हूँ। गरीब-से-गरीब के मकान को भी कम-से-कम एक दरवाजा तो होता ही है। बिना दरवाजे का मकान नहीं होता। वैसे ही हर मनुष्य में एक-आध गुण तो होगा ही। दोष दीवारों के स्थान पर हैं, तो गुण दरवाजों के स्थान पर। हृदय-प्रवेश दरवाजे से ही होगा। मतलब, किसी के हृदय में प्रवेश करने के लिए हमें उसमें एकआध गुण तो ढूँढ़ना ही होगा। यदि दोष ही देखेंगे, तो दीवार के साथ टकरायेंगे, अंदर प्रवेश न कर पायेंगे। हीन से हीन प्राणी में भी एकआध गुण है, उसी के आधार पर वह जीवन जी रहा है। गुण है, इसलिए अहंकार है। जीवन के लिए आधार ही नहीं रहेगा, यदि एक भी गुण उसमें न हो। यानि किसी में जीवन की प्रेरणा है, तो उसका होना ही उसमें गुण होने का प्रमाण है। गुण है, इसलिए जीवन की आकांक्षा है। तो, आप मेरे गुण ढूँढ़ें, मैं आपके ढूँढूँगा। इसमें आपका और मेरा, दोनों का मेल है। यही अर्थ है निरन्तर भगवद-गुणगान का।

फिर कहा है – मय्यर्पर्ण च मनसः सर्वकाम-विवर्जनम् – सब प्रकार की कामनाएँ छोड़कर मुझमें अपने मन का समर्पण कर दें। वास्तव में यह कहने की आवश्यकता ही नहीं थी, क्योंकि जहाँ वाणी से ईश्वर का गुणगान और शरीर से सेवा होगी, वहाँ सब कामनाएँ छोड़ देना कोई बात नहीं। लेकिन हमारे जैसे श्रद्धावान मानते हैं कि भगवान ने यह कहा है, तो उनके कहने में भी कुछ उद्देश्य है। आपने अंगचेष्टा, वाणी, मन ईश्वर को अर्पण कर दिये; लेकिन इसकी कसौटी क्या होगी? कसौटी यही होगी कि आपकी सब कामनाएँ खतम हो गयीं। सर्वकाम-विवर्जनम् – यह खरी कसौटी (एसिड टेस्ट) है। कामना-मुक्ति भगवद्भक्ति की कसौटी है।

मन भगवान को अर्पण करना भक्ति के प्रारम्भ में होता है। लेकिन उसकी कसौटी है, कामना-मुक्ति। यह बहुत महत्त्व की चीज है, जिसका भगवान आगे गौरव कर रहे हैं। वे कहते हैं :

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत-11.19.21
  2. भागवत-11.19.22

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भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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