भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 122

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भागवत धर्म मीमांसा

6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति

 
(19.10) श्रद्धाऽमृतकथायां मे शश्वन्मदनुकीर्तनम् ।
परिनिष्ठा च पूजायां स्तुतिभिः स्तवनं मम ॥[1]
श्रद्धा अमृत-कथायां मे – मेरी अमृत-कथा में श्रद्धा। दुनिया में जितना भी भक्ति-मार्ग है, वह सारा इसी पर आधृत है। मैंने ईसाइयों से पूछा कि ‘बाइबिल में अनेक कथाएँ हैं, चरित्र भी हैं और उपदेश भी। यदि हम चरित्र-कथाओं का भाग छोड़ दें और उपदेश पर का हिस्सा ही लें, तो आपका समाधान होगा?’ उन्होंने जवाब दिया : ‘केवल उपदेश तो सूखा होगा। एक कोश जैसा होगा। उसके साथ ईसा मसीह का चरित्र जुड़ जाता है, तो हमें उसमें रुचि आती है, उससे हमें प्रेरणा मिलती है।’

जिसमें गुण व्यक्त होते हैं, प्रकट होते हैं, वह चरित्र है। गुण स्वयं अव्यक्त होते हैं। इसलिए यहाँ एक साधन बताया – अमृत-कथा पर श्रद्धा। रामजी को पिता की आज्ञा हुई जंगल में जाने की। वे कौसल्या माता का आशीर्वाद लेने गये। माता पूछती है : ‘पिता ने तुझे जंगल में जाने की आज्ञा दे दी, पर क्या माता ने भी दी है?’ राम जी बताते हैं : ‘जी हाँ, कैकेयी माता की भी आज्ञा है।’ फिर कौसल्या राम जी को आशीर्वाद देती और कहती है : ‘जरा दुःख होता है लेकिन ज़्यादा नहीं। हम क्षत्रियों को आख़िरी उम्र में जंगल में जाना ही पड़ता है, पर तुझे जरा जल्दी जाना पड़ रहा है, इसलिए थोड़ा दुःख है।’ फिर राम जी निकल पड़े। रास्ते में उन्हें कई नगर मिले, पर वे उनमें गये नहीं, क्योंकि वनवास की आज्ञा जो हुई थी। यह नहीं माना कि एक आध दिन नगर में बितायें तो हर्ज नहीं, अधिकतर समय वनवास में बीते। उन्होंने आज्ञा का अक्षरशः निष्ठापूर्वक पालन किया। यह सत्यनिष्ठा का उदाहरण है। इससे सत्य मूर्तिमान होता है। ऐसे उदाहरणों से चित पर प्रभाव पड़ता है। इसीलिए भक्ति में कहा है : श्रद्धा अमृत-कथायां में

शश्वत् मदनुकीर्तनम् – निरन्तर मेरी कथाओं का कीर्तन करना चाहिए। महाराष्ट्र में कीर्तन का सुन्दर रिवाज है। कीर्तन करने के लिए एक के बाद एक खड़ा होता है। जो कीर्तन करता है, दूसरे लोग उसके पाँव छूते हैं। उसमें छोटे-बड़े का सवाल नहीं। एक भक्त से किसी ने पूछा : ‘तुमने इतिहास, उपन्यास पढ़ा है?’ भक्त ने जवाब दिया : ‘उन्हें पढ़ने की क्या जरूरत? रामायण तो है ही। उपन्यास में नवरस आते हैं, इतनी ही बात है न? रामायण में वे सब रस हैं।’ मतलब यही कि इसी एक पुस्तक में हमें सब कुछ मिलता है, पर्याप्त बोध मिलता है। रामदास स्वामी ने कहा है :

 जेथे नाहीं श्रवण स्वार्थ।....तेथे साधकें एक क्षण। क्रमूं नये सर्वथा ॥

‘जहाँ श्रवण-रूप स्वार्थ न सध पाये, वहाँ साधकों को एक क्षण भी नहीं गँवाना चाहिए।’

फिर कहा है कि पूजा में श्रद्धा होनी चाहिए – परिनिष्ठा च पूजायाम्। स्तुतिभिः स्तवनं मम – भगवान का गुणगान करना चाहिए। तो क्या होगा? माधवदेव ने ‘नामघोषा’ में कहा है :

कर्ण-पथे भक्तर हियात प्रवेशि हरि ।

अर्थात ‘कर्ण-मार्ग से भक्त के हृदय में हरि प्रवेश करते हैं।’ माधवदेव ने आगे कहा है कि “वे दुर्वासना हरण करते हैं, इसीलिए उनका नाम ‘हरि’ है।” कान से श्रवण करेंगे, तो वह कण्ठ में आयेगा। कण्ठ से हृदय में जायेगा। फलतः हृदय में जो दुर्वासनाएँ होंगी, वे नष्ट हो जाएँगी। इसीलिए श्रवण-कीर्तन होता है तो हृदय में सद्‍भावना बढ़ती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत-11.19.20

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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