भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 124

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भागवत धर्म मीमांसा

6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति

 
(19.13) ऐवं धर्मैर् मनुष्याणां उद्धवात्मनिवेदिनाम् ।
मयि संजायते भक्तिः कोऽन्योऽर्थोऽस्यावशिष्यते ॥[1]

हे उद्धव! ऐवं धर्मैः – ऐसे धर्मों से। अभी तक जिन गुणों का वर्णऩ किया, अब उन्हें ‘धर्म’ नाम दिया : भागवत-धर्मः – ऐसे भागवत धर्म से। आत्म-निवेदिनां मनुष्याणाम् – आत्मनिवेदन करने वाले मनुष्यों में। भक्तिः संजायते – भक्ति पैदा होती है। भक्ति पैदा होने पर क्या किया जाए, यह तो भक्त जानता ही है। जो कुछ करना होता है, वह भक्ति पैदा होने के पहले ही है। आत्म-निवेदन यानि अपना सारा खोलकर रख देना – कोई चीज छिपाकर न रखना।

फिर आश्वासन देते हैं कि उनके लिए और कोई अर्थ प्राप्त करना बाकी नहीं रहेगा – कः अन्यः अर्थः अस्य अवशिष्यते? भक्ति यानि रत्नचिन्तामणि। भक्त को यदि वह सध जाए, तो उसे सब कुछ प्राप्त हो गया। उसके अलावा और कोई वस्तु प्राप्तव्य हो, तो उसकी चिन्ता भगवान स्वयं करेंगे।

 (19.14) यदाऽऽत्मन्यर्पितं चित्तं शांतं सत्त्वोपबृंहितम् ।
धर्म ज्ञानं स-वैराग्यं ऐश्वर्यं चाभिपद्यते ॥[2]

यदा आत्मनि अर्पितं चित्तम् – जब चित्त अन्दर अपनी आत्मा को अर्पित किया जाता है। तो आज तो आपका चित्त आत्मा को नहीं, दुनिया को अर्पित है। ‘आओ जाओ, घर तुम्हारा!’ आपके चित्त में कोई भी विचार आ सकता है, पैठ सकता है। यानि अभिक्रम आपके नहीं, दुनिया के हाथ में होगा। पर समझना चाहिए कि दुनिया भर की चीजें हमारे हाथ में नहीं। जो हमारे हाथ की चीज है – अपना चित्त, वह तो हमने खो दिया और जो हाथ की चीज नहीं, उसे लेने बैठते हैं। फिर शान्ति कहाँ? जब चित्त आत्मा को अर्पण होगा, तभी वह शान्त हो सकेगा।

चित्त शान्त होने के बाद क्या होगा? सत्त्वोपबृंहितम्– सत्त्वगुण का परिपोष होगा। ‘बृंहण’ यानि पोषण। यह वैद्यशास्त्र का शब्द है। प्राकृतिक चिकित्सा वाले लंघन ही करवाते हैं। लेकिन वैद्य 'लंघन' भी करवाते हैं और ‘बृंहण’ भी। भगवान ने कहा है, सत्त्वगुण से परिपुष्ट चित्त तब बनता है, जब वह आत्मा को अर्पित होता है।

फिर क्या मिलता है? धर्म ज्ञानं स-वैराग्यम् ऐश्वर्यं च अभिपद्यते – वह धर्म, ज्ञान और वैराग्य के साथ ऐश्वर्य भी प्राप्त करता है। वैराग्य के साथ ऐश्वर्य, जनक महाराज के समान! हिन्दुस्तान के इतिहास में जिस समय अधिक-से-अधिक वैराग्य था, उस समय अधिक-से-अधिक ऐश्वर्य भी था। अपने यहाँ प्राचीनकाल से दो आदर्श माने गये हैं। एक शुकदेव का और दूसरा जनक महाराज का। शुकदेव यानि ‘अन्तस्त्यागी बहिस्त्यगी यानि वे संन्यासी थे। पर जनक कैसे थे? 'अन्तस्त्यागी और बहिःसंगी।’ वसिष्ठ ने राम को उपदेश दिया था : अन्तस्त्यागी बहिःसंगी लोके विचर राघव।

एक ओर से शुकदेव, तो दूसरी ओर से जनक! एक तरफ शिव, तो दूसरी तरफ विष्णु! शिव वैराग्यसम्पन्न हैं – अंदर और बाहर से, तो विष्णु बाहर से ऐश्वर्य-संपन्न, लेकिन अन्दर से अनासक्त। हमने ‘साम्यसूत्र’ लिखा है : शुक-जनकयोरेकः पन्थाः – शुक और जनक का एक ही मार्ग है। समझाया यह गया कि जो अपना चित्त ईश्वर को अर्पण करेगा, उसके चित्त को शान्ति मिलेगी, वह सत्त्वगुण से परिपुष्ट होगा और उसे धर्म-ज्ञान-वैराग्य के साथ ऐश्वर्य भी मिलेगा। यह सारा भक्ति से ही होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत-11.19.24
  2. भागवत-11.19.25

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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