भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 107

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भागवत धर्म मीमांसा

4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक

तुकाराम महाराज समाधि के सामने पेड़ के नीचे खड़े हो गये और साष्टांग (दण्डवत्) प्रणाम किया। इस बीच पेड़ पर जो पक्षी बैठे थे, वे एकदम उड़ गये। तुकाराम महाराज दुःखी हुए कि मेरे डर से पक्षी उड़ गये! वे वहीं शान्ति से खड़े हो गये – पेड़ के समान शान्त! कुछ समय बाद पक्षी उनके कंधे पर आ बैठे। तब उनको बहुत आनन्द हुआ। जब तक भगवान का दर्शन नहीं होगा, तब तक ऐसी साम्यावस्था नहीं आयेगी।

अवधीं भूते साम्या आलीं। देखिलीं म्यां कैं होती।
विश्वास तो खरा मग। पांडुरंग कृपेचा ॥

जब सभी भूत साम्यावस्था में पहुँच गये हैं, ऐसा अनुभव आयेगा तभी भगवान का दर्शन होगा। तुकाराम महाराज कहते हैं कि जो भी मुझे मिलता है, वह मैं ही हूँ, ऐसा मुझे लगता है। साम्यावस्था का यह जो अनुभव है, उसी में आनन्द है। नानात्व का भास नहीं होगा, मेरा ही रूप सब भूतों में दिखाई देगा, तो आनन्द आयेगा। बात कठिन दीखती है, लेकिन प्रयत्न करने पर निश्चय ही सधने जैसी है।


स्वप्न से जागा हुआ मनुष्य जानता है कि जो देखा था, वह सही नहीं। वैसे ही एक बार यदि भान हो जाय कि नानात्व का भास सही नहीं है, तो प्रतीति होगी कि सर्वत्र मैं ही मैं व्याप्त हूँ। ऐसे महापुरुष हमारे देश में हो गये, जिन्हें यह अनुभूति हुई कि दुनिया मुझसे भिन्न नहीं है। दुनिया के दूसरे हिस्सों में इस तरह के पुरुष हुए हैं।


नानक की कहानी है। पिता ने उन्हें गल्ले की दूकान पर बिठाया। खरीददार आये। गल्ला तौलकर देना था। नानक तौलने लगे :‘एक, दो, तीन .......ग्यारा, बारा, तेरा!’‘तेरा तेरा’ ही कहते रहे, तेरह के आगे नहीं बढ़े। मतलब यह कि ‘मेरा कुछ है ही नहीं, भगवन! सब कुछ तेरा ही तेरा है।’ फलस्वरूप आज पंजाब में एक नानक का ही नाम चलता है। इतने सारे राजा आये और गये, लेकिन किसी का भी नाम लोगों को याद नहीं। ऐसा क्यों हुआ? इसीलिए कि नानक ने पहचाना :

बिसर गई सब तात पराई। जब ते साधु संगति मोहि पाई॥

नानक कह रहे हैं कि मेरे लिए अब न कोई वैरी है, न कोई सगा।

सार यह कि इस व्यापक अनुभूति में महान आनन्द भरा पड़ा है। हमें उस आनन्द को प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिए। हमें अपने घर से बाहर देखने की कोशिश करनी चाहिए। घर में प्रेम है। लेकिन जैसे पानी एक ही जगह पर रहने से सड़ जाता है, वैसे ही प्रेम घर में क़ैद हुआ तो सड़ जाता है। उससे काम-वासना बढ़ती है। वह यदि परिवार के बाहर बहता रहे तो निश्चय ही व्यापक अनुभूति आयेगी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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