भागवत धर्म मीमांसा4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक मुक्त मनुष्य देह में रहते हुए भी मुक्त रहता है। उसमें प्राण, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि की वृत्तियाँ होती हैं। भूख लगती है। सामान्यजनों के समान उसकी जठराग्नि प्रज्वलित होती है। उसकी आँखें देखती हैं और उनका परिणाम भी होता है। कान सुनते हैं, उनका भी परिणाम होता है। ये सारी वृत्तियाँ मुक्त पुरुष में भी होंगी, लेकिन संकल्परहित होंगी। अपनी वासना का संकल्प उनके साथ जुड़ा हुआ नहीं रहेगा। गीली मिट्टी का गोला या गोबर दीवार पर फेकेंगे, तो वह वहीं चिपक जायेगा। लेकिन गेंद फेकेंगे तो वह नहीं चिपकेगी, वापस आयेगी। ज्ञानी के चित्त पर ये वृत्तियाँ गेंद-जैसी फेंकी जाती हैं। वे वहाँ चिपकती नहीं, वापस आती हैं। चित्त को छूकर भी उस पर टिकती नहीं, गिर जाती हैं। यानि निस्संकल्प वृत्ति होती है। वृत्ति पैदा होगी, लेकिन वह संकल्परहित होगी। हम खाना खायेंगे, तो हमें आनन्द होगा। पर मुक्त पुरुष पेट में भूख है, इसलिए खाना खायेगा। उससे न तो उसका आनन्द बढ़ेगा और न घटेगा ही। आनन्द तो आत्मा में है। आँख से देखा और छोड़ दिया, कान से सुना और छोड़ दिया – मुक्त पुरुष का यही हाल है, क्योंकि सबके लिए उसकी भगवद्भावना है। इसलिए मुक्त पुरुष देह रहते हुए भी देह के गुणों से मुक्त ही रहता है। (11.12) यस्यात्मा हिंस्यते हिंस्रैर् येन किंचिद् यदृच्छया । अर्च्यते वा क्वचित् तत्र न व्यतिक्रियते बुधः ॥[2]</poem> मुक्त पुरुष की देह को कोई हिंस्र पशु मारता है –हिंस्यते या कोई अर्च्यते– उसकी पूजा करता है, तो उसके चित्त को विक्रिया नहीं होती। यानि चित्त विचलित नहीं होता। कोई मारे-पीटे तो परवाह नहीं, यह बात समझ में आती है। लेकिन खाने के लिए शेर सामने खड़ा है, फिर भी चित्त विचलित न हो, यह समझ में आना कठिन है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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