भागवत धर्म सार -विनोबा पृ. 106

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भागवत धर्म मीमांसा

4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक

(11.10) वैशारद्येक्षयाऽसंग-शितया छिन्न-संशयः।
प्रतिबुद्ध इव स्वप्नात् नानात्वाद् विनिवर्तते॥[1]

मुक्त पुरुष कैसा होता है? छिन्नसंशयः –उसके सारे संशय मिट जाते हैं। जब तक मन में संशय रहेगा, तब तक मुक्ति का प्रश्न ही नहीं, गोते लगाते रहें। मुक्त पुरुष के सारे संशय कट जाते हैं। संशय किस तरह काटे जाएँ?

ईक्षया –दर्शन अथवा ज्ञान से। कैसे ज्ञान से?

वैशारद्य (+ईक्षया) –निर्मल ज्ञान, निर्मलता से। आजकल एक शब्द चल पड़ा है ‘विशारद’ यानि प्रवीण। किन्तु यहाँ ‘वैशारद्य’ का अर्थ है निर्मल। शरद् ऋतु में आकाश साफ होता है। बादल नष्ट होते और आकाश निर्मल हो जाता है। इसी ‘शरद्’ शब्द से ‘वैशारद’ शब्द बना। इस प्रकार ‘वैशारद्येक्षा’का अर्थ हुआ निर्मलतायुक्त ज्ञान, स्वच्छ-निर्मल ज्ञान। निर्मल ज्ञान से संशय कट गये। संशय काटने के लिए ज्ञानरूपी तलवार चाहिए। तलवार को धार चढ़ानी पड़ती है। धार चढ़ाने के औजार को ‘शाण’ कहते हैं। इसी शब्द पर से ‘शित’ शब्द बना है। शित यानि प्रखर।

शितया –प्रखर ज्ञान से। फिर वह ज्ञान असंग–अनासक्त भी चाहिए। अनासक्ति की धार न हो, तो ज्ञान प्रखर नहीं होगा। चित्त का कहीं लगाव न होगा, तभी ज्ञान-प्राप्ति होगी। न्यायालय में न्यायाधीश दोनों पक्षों की बातें सुनकर तटस्थता से सोचता और केवल सत्य देखता है। उसका ज्ञान यथार्थ होता है, क्योंकि वह किसी पक्ष से चिपका नहीं रहता। मतलब यह कि ज्ञान के लिए चिपका हुआ चित्त काम का नहीं। सारांश, मुक्त पुरुष जैसा है? उसने अनासक्ति से ज्ञान को प्रखर बनाया और इसी कारण उसके सारे संशय कट गये।


ऐसा मनुष्य नानात्व की पकड़ में कभी नहीं आता। नानात्व यानि भेदभाव। नानात्वाद् विनिवर्तते –वह नानात्व से निवृत्ति हो जाता है। इसका स्वार्थ अलग और मेरा अलग, इस प्रकार आप-पर-भाव उसके पास नहीं रहता। भागवत में नानात्व पर बार-बार प्रहार किया गया है। बड़ा मुश्किल है यह नानात्व मिटाना!


माता को एक हद तक यह सधा होता है। वह यह कभी महसूस नहीं करती कि बच्चे का स्वार्थ अलग है और मेरा स्वार्थ अलग। बच्चे भले ही महसूस करते हों, पर माँ यही समझती है कि जो बच्चे का स्वार्थ, वही मेरा स्वार्थ है। जो ऐसा माने, वही आदर्श माता है। माँ की नानात्व-निवृत्ति उतनी हद तक हो गयी है। फिर भी सारी दुनिया के साथ व्यापक अनुभूति हो, यह बात उसके लिए भी कठिन है। किन्तु यदि विवेक हो, निर्मल बुद्धि हो, अनासक्ति हो तो यह अवश्य सध सकता है। नानक ने कहा है :

सबमे रम रहिया प्रभु एकै। पेखि पेखि नानक बिगसाई ॥

अर्थात ‘सबमें एक ही प्रभु है, यह देख-देखकर मुझे खुशी होती है।’ यह अनुभूति असम्भव नहीं। एक बार यह बात ध्यान में पैठ जाए तो सरल है, आसान है। माँ को बच्चों के लिए कष्ट सहने में आनन्द होता है, इसीलिए बच्चों की हद तक उसका नानात्व घटा है। यदि नानात्व घटाने में आनन्द बढ़ने की अनुभूति हो, तो उसे और घटाने और अन्ततः मिटा देने में उससे भी अधिक आनन्द की अनुभूति होगी।


यदि हम अपने को फैला दें, तो उसमें अधिक आनन्द आयेगा। जो चीज छोटे परिमाण में सिद्ध होती है, वह बड़े परिमाण पर लागू की जा सकती है। परिवार एक प्रयोगशाला है। उसमें फैलाने का प्रयोग आपने किया। दूसरे के स्वार्थ में अपना स्वयं का स्वार्थ डुबा दिया, यानि अपने स्वार्थ को फैलाया। आपको अनुभव आया कि आपका स्वार्थ बढ़ा! इस तरह अपना स्वार्थ फैलाने में, व्यापक करने में खतरा तो दीखता ही नहीं। फिर डरने की क्या बात है? जितनी व्यापक अनुभूति होगी, उतनी ही आनन्द में वृद्धि होती जायेगी।


तुकाराम महाराज की कहानी है। वे ज्ञान देव महाराज की समाधि पर गये थे। ज्ञानदेव महाराज महाराष्ट्र के बड़े सन्त-पुरुष हो गये हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत-11.11.13

संबंधित लेख

भागवत धर्म सार
क्रमांक प्रकरण पृष्ठ संख्या
1. ईश्वर-प्रार्थना 3
2. भागवत-धर्म 6
3. भक्त-लक्षण 9
4. माया-तरण 12
5. ब्रह्म-स्वरूप 15
6. आत्मोद्धार 16
7. गुरुबोध (1) सृष्टि-गुरु 18
8. गुरुबोध (2) प्राणि-गुरु 21
9. गुरुबोध (3) मानव-गुरु 24
10. आत्म-विद्या 26
11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक 29
12. वृक्षच्छेद 34
13. हंस-गीत 36
14. भक्ति-पावनत्व 39
15. सिद्धि-विभूति-निराकांक्षा 42
16. गुण-विकास 43
17. वर्णाश्रम-सार 46
18. विशेष सूचनाएँ 48
19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 49
20. योग-त्रयी 52
21. वेद-तात्पर्य 56
22. संसार प्रवाह 57
23. भिक्षु गीत 58
24. पारतंत्र्य-मीमांसा 60
25. सत्व-संशुद्धि 61
26. सत्संगति 63
27. पूजा 64
28. ब्रह्म-स्थिति 66
29. भक्ति सारामृत 69
30. मुक्त विहार 71
31. कृष्ण-चरित्र-स्मरण 72
भागवत धर्म मीमांसा
1. भागवत धर्म 74
2. भक्त-लक्षण 81
3. माया-संतरण 89
4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक 99
5. वर्णाश्रण-सार 112
6. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति 115
7. वेद-तात्पर्य 125
8. संसार-प्रवाह 134
9. पारतन्त्र्य-मीमांसा 138
10. पूजा 140
11. ब्रह्म-स्थिति 145
12. आत्म-विद्या 154
13. अंतिम पृष्ठ 155

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