भागवत धर्म मीमांसा4. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु साधक(11.10) वैशारद्येक्षयाऽसंग-शितया छिन्न-संशयः। मुक्त पुरुष कैसा होता है? छिन्नसंशयः –उसके सारे संशय मिट जाते हैं। जब तक मन में संशय रहेगा, तब तक मुक्ति का प्रश्न ही नहीं, गोते लगाते रहें। मुक्त पुरुष के सारे संशय कट जाते हैं। संशय किस तरह काटे जाएँ? ईक्षया –दर्शन अथवा ज्ञान से। कैसे ज्ञान से? वैशारद्य (+ईक्षया) –निर्मल ज्ञान, निर्मलता से। आजकल एक शब्द चल पड़ा है ‘विशारद’ यानि प्रवीण। किन्तु यहाँ ‘वैशारद्य’ का अर्थ है निर्मल। शरद् ऋतु में आकाश साफ होता है। बादल नष्ट होते और आकाश निर्मल हो जाता है। इसी ‘शरद्’ शब्द से ‘वैशारद’ शब्द बना। इस प्रकार ‘वैशारद्येक्षा’का अर्थ हुआ निर्मलतायुक्त ज्ञान, स्वच्छ-निर्मल ज्ञान। निर्मल ज्ञान से संशय कट गये। संशय काटने के लिए ज्ञानरूपी तलवार चाहिए। तलवार को धार चढ़ानी पड़ती है। धार चढ़ाने के औजार को ‘शाण’ कहते हैं। इसी शब्द पर से ‘शित’ शब्द बना है। शित यानि प्रखर। शितया –प्रखर ज्ञान से। फिर वह ज्ञान असंग–अनासक्त भी चाहिए। अनासक्ति की धार न हो, तो ज्ञान प्रखर नहीं होगा। चित्त का कहीं लगाव न होगा, तभी ज्ञान-प्राप्ति होगी। न्यायालय में न्यायाधीश दोनों पक्षों की बातें सुनकर तटस्थता से सोचता और केवल सत्य देखता है। उसका ज्ञान यथार्थ होता है, क्योंकि वह किसी पक्ष से चिपका नहीं रहता। मतलब यह कि ज्ञान के लिए चिपका हुआ चित्त काम का नहीं। सारांश, मुक्त पुरुष जैसा है? उसने अनासक्ति से ज्ञान को प्रखर बनाया और इसी कारण उसके सारे संशय कट गये।
सबमे रम रहिया प्रभु एकै। पेखि पेखि नानक बिगसाई ॥ अर्थात ‘सबमें एक ही प्रभु है, यह देख-देखकर मुझे खुशी होती है।’ यह अनुभूति असम्भव नहीं। एक बार यह बात ध्यान में पैठ जाए तो सरल है, आसान है। माँ को बच्चों के लिए कष्ट सहने में आनन्द होता है, इसीलिए बच्चों की हद तक उसका नानात्व घटा है। यदि नानात्व घटाने में आनन्द बढ़ने की अनुभूति हो, तो उसे और घटाने और अन्ततः मिटा देने में उससे भी अधिक आनन्द की अनुभूति होगी।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भागवत-11.11.13
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