अच्छा, कलश!
तू तनिक जल के भीतर ही बैठ,
मैं उस स्थान पर बैठती हूँ,
जहाँ कल बैठकर कन्हैया ने वंशी बजायी थी।
आह, ये बालूकण भी भीग रहे हैं।
क्या तुम भी रो रहे हो?
तुम्हें भी उसकी याद आती है?
मैं प्रकृतिस्थ हूँ,
मुझे कुछ नहीं हुआ।
तो तुम भी कल की बात सुनोगे?
लो तुम्हें भी सुनाती हूँ।
आह!
क्या ही निराली थी कलकी बात।
(नेत्र बंद करके शिथिल होकर बैठ जाती है)