आज कुछ अजीब-सा चित्त हो रहा है।
मन कहता है कि मनमोहन कुंज में बैठे मुरली बजा रहे हैं।
मन तो आज कल सनकी हो गया है।
भला यह भी विश्वास करने योग्य बात है?
वे क्यों आने लगे?
उन्हें वहाँ कमी ही क्या है?
रत्नजटित गगनचुंबी भवन के सामने कँटीले कुंजों की याद?
मूर्ख से भी मूर्ख होगा, वह भी विश्वास न करेगा।
पर, वाह रे निर्लज्ज मन!
अब भी तू अपनी ही कह रहा है।
हो सकता है कूबरी से कुछ खटक गयी हो,
मान कर बैठे हों,
किंतु वहाँ कैसे मान करते?
सैकड़ों-हजारों दास-दासियाँ,
जनशून्य स्थान ही न मिला होगा।
शायद इसी से कुंजों की याद आ गयी हो।