बावरी गोपी -प्रेम भिखारी पृ. 64

बावरी गोपी -प्रेम भिखारी

11. कूबरी! तू धन्य है

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अभी रात बहुत है क्या?
न जाने सबेरा कब होगा।
मैंने समझा था, घंटे-दो-घंटे रात होगी;
इसी भ्रम में उठकर यहाँ चली आयी।
कूबरी की बात सोचते-सोचते कुछ झपकी-सी लग गयी थी,
क्षण ही भरके लिये तो।
दीख पड़ा जैसे कूबरी लेटी है,
मोहन पंखा झल रहे हैं।
हा प्यारे!
कौन-सा दृश्य दिखाया।
दासी की दासता
हमारा हृदयेश्वर,
हमारी आँखों का तारा,
हमारा प्राण-प्यारा,
जिसके मुखपर पसीने की एक बूँद देखकर
सारे ब्रजवासी विकल हो जाते थे,
जिसकी सेवा के लिये सभी अवसर ढूँढ़ते रहते थे,
जिसके हाथ में अनेक श्रृंगारों से युक्त हल्की वंशी रहती थी,
उसके हाथ में पंखा?

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बावरी गोपी -प्रेम भिखारी
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. कल की बात 1
2. क्या मैं बावरी हूँ? 6
3. मेरी ही भूल थी 11
4. और कूक 18
5. कैसे थे वे दिन? 23
6. कल आयेंगे 29
7. रे भौंरे, मत गूँज 37
8. इस मक्खन का क्या करूँ? 44
9. हाय, यह तो स्वप्न था 52
10. कूबरी, तुझे धिक्कार है 58
11. कूबरी! तू धन्य है 64
12. कुछ न कहना 69
13. मैं भली कि मछली 75
14. कोई तो बताये 83
15. सुनाऊँ किसको मनकी बात 90
16. यह है प्रेम-परिणाम 98
17. यही आशा तो बैरिन हो गयी 105
18. बस, एक झलक 112
19. मैं तो चली पिया की डागरिया 119

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