अभी रात बहुत है क्या?
न जाने सबेरा कब होगा।
मैंने समझा था, घंटे-दो-घंटे रात होगी;
इसी भ्रम में उठकर यहाँ चली आयी।
कूबरी की बात सोचते-सोचते कुछ झपकी-सी लग गयी थी,
क्षण ही भरके लिये तो।
दीख पड़ा जैसे कूबरी लेटी है,
मोहन पंखा झल रहे हैं।
हा प्यारे!
कौन-सा दृश्य दिखाया।
दासी की दासता
हमारा हृदयेश्वर,
हमारी आँखों का तारा,
हमारा प्राण-प्यारा,
जिसके मुखपर पसीने की एक बूँद देखकर
सारे ब्रजवासी विकल हो जाते थे,
जिसकी सेवा के लिये सभी अवसर ढूँढ़ते रहते थे,
जिसके हाथ में अनेक श्रृंगारों से युक्त हल्की वंशी रहती थी,
उसके हाथ में पंखा?