प्राणवल्लभ!
बस, अब हो चुका,
मैं प्रतीक्षा की चरम सीमा पर आ गयी,
स्वभावतः अब लुढ़कना ही है।
आखिर तुम नहीं ही आये,
तो सब कुछ भूलकर मुझे ही आना पड़ेगा।
अभी तो छूटी हुई हूँ,
पता नहीं सास जी फिर कब बाँध दे?
मन कहता है- चल,
नेत्र कहते हैं- चल,
कान कहते हैं- चल,
हाथ पैर कहते हैं- चल
तब कैसे रुकूँ, मोहन?
कहीं तुम मेरी विवशता को समझ पाते?
मेरे आने पर तुम क्रुद्ध तो न होगे?
क्रुद्ध ही होगे तो मेरा क्या वश है,
अब बिना तुम्हें देखे चैन नहीं!