बावरी गोपी -प्रेम भिखारी पृ. 112

बावरी गोपी -प्रेम भिखारी

18. बस, एक झलक

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नयनाभिराम!
ये हठीले नेत्र नहीं मानते।
कितना समझाती हूँ कि
फिर वह रूप देखने की लालसा मत करो!
वर्षोंतक तो अपलक होकर देख चुके हो,
उस रूप में अब कुछ वृद्धि थोड़े ही हुई होगी।
वृद्धि की कौन कहे, वैसा रूप भी न रह गया होगा।
मोरपंख के स्थान पर रत्नों से जड़ा हुआ मुकुट होगा,
वह सुघर साँवला शरीर जरीदार रेशमी वस्त्रों से ढका होगा।
दुपट्टे की वह फहरान न होगी,
पीताम्बर भी उस ढंग का न होगा,
छोटे-छोटे कर-कमलों में वह मुरली न होगी,
नेत्रों में चंचलता के स्थान पर गंभीरता होगी।
बोलो, देखोगे उनका यह परिवर्तित रूप?

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क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. कल की बात 1
2. क्या मैं बावरी हूँ? 6
3. मेरी ही भूल थी 11
4. और कूक 18
5. कैसे थे वे दिन? 23
6. कल आयेंगे 29
7. रे भौंरे, मत गूँज 37
8. इस मक्खन का क्या करूँ? 44
9. हाय, यह तो स्वप्न था 52
10. कूबरी, तुझे धिक्कार है 58
11. कूबरी! तू धन्य है 64
12. कुछ न कहना 69
13. मैं भली कि मछली 75
14. कोई तो बताये 83
15. सुनाऊँ किसको मनकी बात 90
16. यह है प्रेम-परिणाम 98
17. यही आशा तो बैरिन हो गयी 105
18. बस, एक झलक 112
19. मैं तो चली पिया की डागरिया 119

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