मनमोहन!
क्षमा करना प्यारे,
मुझसे बड़ा अपराथ हुआ।
अंगों को स्वच्छ नहीं रखती थी,
अंगराग नहीं लेपती थी,
लहराते हुए कान्तिमय लंबे केशों की
तुम्हारी प्रिय वेणी में लटें पड़ गयी थीं।
उनमें तेल डालना तथा कंघी से सँवारना छोड़ दिया था।
नेत्रों में काजल नहीं लगाती थी।
हा..............ऐसा मैंने क्यों किया!
इन्हें बिगाड़ने का मेरा क्या अधिकार है!
ये सब तो तुम्हारी वस्तुएँ थीं,
और अब भी हैं।
तुम्हारी प्रिय वस्तुएँ हैं।
फिर मुझे इनकी सँभाल रखनी चाहिये थी।
तुम अपनी वस्तुओं को छोड़ गये,
साथ नहीं ले गये,
मुझे सौंप गये,
तो मेरा धर्म क्या इनको विकृत कर देना है?