बावरी गोपी -प्रेम भिखारी पृ. 75

बावरी गोपी -प्रेम भिखारी

13. मैं भली कि मछली

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मनमोहन!
तुमको देखे हुए कितने दिन हो गये,
वियोग का दुःख सहते-सहते निर्जीव-सी हो गयी,
किंतु पापी प्राण न निकले।
जब तुम्हीं दया नहीं करते तो मृत्यु क्यों करने लगी।
सुनती हूँ, मरने वाले मृत्यु की राह नहीं देखते,
वे स्वयं मृत्यु के पास चले जाते हैं।
मैं क्यों नहीं गयी?
पता नहीं।
इस दुःख से मृत्यु को भली समझकर भी मैं जीती हूँ।
मछलियों को देखो,
जल से विलग होते ही तड़पने लगती हैं।
उनकी तड़पन भी साधारण नहीं होती,
वे तब तक तड़पती रहती हैं,
जब तक कि प्राण नहीं निकल जाते।

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बावरी गोपी -प्रेम भिखारी
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. कल की बात 1
2. क्या मैं बावरी हूँ? 6
3. मेरी ही भूल थी 11
4. और कूक 18
5. कैसे थे वे दिन? 23
6. कल आयेंगे 29
7. रे भौंरे, मत गूँज 37
8. इस मक्खन का क्या करूँ? 44
9. हाय, यह तो स्वप्न था 52
10. कूबरी, तुझे धिक्कार है 58
11. कूबरी! तू धन्य है 64
12. कुछ न कहना 69
13. मैं भली कि मछली 75
14. कोई तो बताये 83
15. सुनाऊँ किसको मनकी बात 90
16. यह है प्रेम-परिणाम 98
17. यही आशा तो बैरिन हो गयी 105
18. बस, एक झलक 112
19. मैं तो चली पिया की डागरिया 119

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