मनमोहन!
तुमको देखे हुए कितने दिन हो गये,
वियोग का दुःख सहते-सहते निर्जीव-सी हो गयी,
किंतु पापी प्राण न निकले।
जब तुम्हीं दया नहीं करते तो मृत्यु क्यों करने लगी।
सुनती हूँ, मरने वाले मृत्यु की राह नहीं देखते,
वे स्वयं मृत्यु के पास चले जाते हैं।
मैं क्यों नहीं गयी?
पता नहीं।
इस दुःख से मृत्यु को भली समझकर भी मैं जीती हूँ।
मछलियों को देखो,
जल से विलग होते ही तड़पने लगती हैं।
उनकी तड़पन भी साधारण नहीं होती,
वे तब तक तड़पती रहती हैं,
जब तक कि प्राण नहीं निकल जाते।