हे भगवान्!
नींद भी रूठ गयी।
कब से पड़ी-पड़ी करवट बदल रही हूँ,
एक क्षण के लिये भी झपकी नहीं लगती!
मन को बहुत बहलाती हूँ,
धीरज बँधाती हूँ कि
कभी तो श्यामसुन्दर के दर्शन होंगे।
दूसरी-दूसरी बात सोचती हूँ;
पर पता नहीं,
कब उनकी लीलाएँ स्मरण आ जाती हैं।
आराम से सोना हम लोगों के भाग्य में
विधाता ने लिखा ही नहीं।
पहले कन्हैया की वंशी नहीं सोने देती थी,
अब उस की याद सोने नहीं देती।