बावरी गोपी -प्रेम भिखारी पृ. 41

बावरी गोपी -प्रेम भिखारी

7. रे भौंरे, मत गूँज

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वहाँ चलती हूँ,
यदि मेरे मधुकर मिल गये तो तू पेट भर के गूँज लेना।
किंतु तू क्यों मानने लगा!
आखिर काला-कुटिल भौंरा ही ठहरा!
तू निर्दयता का साक्षात् रूप है।
दिनभर में न जाने कितनी भोली कलियों के ऊपर
गुनगुन करके अपना झूठा प्रेम दर्शाता है।
वे तुझे समझ नहीं पातीं।
तेरे झूठे प्रेम के बहकावे में आ जाती हैं,
अपना सब कुछ तुझे अर्पण कर देती हैं।
और तू क्या करता है?
रस पिया और भागा।
बेचारी कलियाँ अपना सब कुछ गँवाकर
हाथ मलती रह जाती हैं।
जो दिन भर यही करता हो,
उसके हृदय में दया कहाँ।

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बावरी गोपी -प्रेम भिखारी
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. कल की बात 1
2. क्या मैं बावरी हूँ? 6
3. मेरी ही भूल थी 11
4. और कूक 18
5. कैसे थे वे दिन? 23
6. कल आयेंगे 29
7. रे भौंरे, मत गूँज 37
8. इस मक्खन का क्या करूँ? 44
9. हाय, यह तो स्वप्न था 52
10. कूबरी, तुझे धिक्कार है 58
11. कूबरी! तू धन्य है 64
12. कुछ न कहना 69
13. मैं भली कि मछली 75
14. कोई तो बताये 83
15. सुनाऊँ किसको मनकी बात 90
16. यह है प्रेम-परिणाम 98
17. यही आशा तो बैरिन हो गयी 105
18. बस, एक झलक 112
19. मैं तो चली पिया की डागरिया 119

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