बावरी गोपी -प्रेम भिखारी पृ. 17

बावरी गोपी -प्रेम भिखारी

3. मेरी ही भूल थी

Prev.png

तुम चंचल नेत्रों को इधर-उधर घुमाते हुए वंशी बजा रहे थे,
मैं तुम्हें एकटक देख रही थी।
फिर क्या था,
क्रमशः सब कुछ तुम पर वार दिया।
किन्तु कितने दिनों के लिये?
आह, यही तो कसक है।
इसकी कल्पना भी न की थी कि
तुम ऐसी भोली-भाली मूरत वाले भी छली निकलोगे।
अब तो मैं न इधर की रही, न उधर की।
तुम्हें क्यों दोष दूँ मनमोहन!
सखियों की बात मानकर
पिता जी से यहाँ ब्याह न करने को कह देती,
तभी ठीक था।
किन्तु अब क्या?
अब मुख से बार-बार यही निकलता है-
मेरी ही भूल थी।
(नेत्र बंद करके मौन हो जाती है।)

Next.png

संबंधित लेख

बावरी गोपी -प्रेम भिखारी
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. कल की बात 1
2. क्या मैं बावरी हूँ? 6
3. मेरी ही भूल थी 11
4. और कूक 18
5. कैसे थे वे दिन? 23
6. कल आयेंगे 29
7. रे भौंरे, मत गूँज 37
8. इस मक्खन का क्या करूँ? 44
9. हाय, यह तो स्वप्न था 52
10. कूबरी, तुझे धिक्कार है 58
11. कूबरी! तू धन्य है 64
12. कुछ न कहना 69
13. मैं भली कि मछली 75
14. कोई तो बताये 83
15. सुनाऊँ किसको मनकी बात 90
16. यह है प्रेम-परिणाम 98
17. यही आशा तो बैरिन हो गयी 105
18. बस, एक झलक 112
19. मैं तो चली पिया की डागरिया 119

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः