मैं क्या समझती थी कि तुम्हारा जादू इतना सच्चा है।
उत्सुकतावश ही मैंने तुम्हें आधी दृष्टि से देखा था,
उतने में ही तुम्हारी सलोनी मूर्ति हृदय में बैठ गयी।
अपने को सँभालने की चेष्टा की,
न रहा गया;
फिर तुम्हारी ओर दृष्टि गयी,
तुमने मुसकरा दिया।
आह, वह मुस्कान क्या थी, एक माया थी।
आज भी वह प्रथम दिवस की मुस्कान नहीं भूलती।
सखियों की बात का स्मरण आया,
अपने अभिमान का भी ध्यान आया।
खाली घड़ा लेकर ही पीछे लौटने का विचार किया।
अभी मुड़ भी न पायी थी कि तुमने वंशी फूँक दी,
हृदय में विद्युत्-लहर-सी दौड़ गयी।
मैं ठिठक गयी।
घड़ा पृथ्वी पर रखकर बैठ गयी।
अभिमान जाता रहा।