तुम कैसे कठोर हो, माधव!
जिन नेत्रों की इतनी प्रशंसा करते थे,
जिनमें स्वयं काजल लगाते थे,
जिनमें कभी छोटी-सी किरकिरी पड़ जाने पर
तुम्हारे नेत्र सजल हो जाते थे,
अपने पीताम्बर से जब तक उसे निकाल न लेते,
चैन न लेते थे।
कभी-कभी ऐसी टकटकी लगा देते थे
मानो इन नेत्रों को नेत्रों द्वारा खींचकर हृदय में बिठा लोगे।
हाय, उन्हीं नेत्रों को आज तुमने इस तरह भुला दिया?
मेरे इन नेत्रों को देखो,
अब भी इनमें तुम्हारी ही मूर्ति बसी है।
किसी भी दूसरे रूप पर ये नहीं ठहरते।
अपने में बसे हुए रूप को ही प्रत्यक्ष देखना चाहते हैं।