रो-रोकर ये अपनी सुन्दरता भी खो बैठे।
अपनी श्वेतता से हाथ धो बैठे।
देखो कितने लाल हो रहे हैं।
पलकें मोटी हो गयी हैं,
वे स्वच्छ और नुकीली बरौनियाँ
परस्पर गुँथकर सीधी पड़ गयी हैं।
नेत्र पूरे खुलते भी नहीं,
किसके लिये खुलें?
प्यारे कन्हैया!
जब से तुम गये, तब से इनमें काजल नहीं लगाया,
जब मैं काजल की डिब्बी उठाती हूँ,
तब ये बंद हो जाते हैं,
मैं फिर डिब्बी रख देती हूँ।