गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 19निःस्पर्श आकाश से स्पर्शवान् वायु, अरूप तेजस् से रूप तत्त्व एवं निर्गन्ध जल से गन्धवती पृथ्वी की उत्पत्ति होती है। इसी तरह आप्तकाम, पूर्णकाम, परमनिष्काम, आत्माराम से ही काम की उत्पत्ति होती हैं। जैसे अग्नि में दाहकत्व, जल में शीतलता आदि उनके स्वभाव-सिद्ध एवं नित्यगुण हैं वैसे ही आत्मा स्वभावतः सुख-स्वरूप एवं रस–स्वरूप हैं। एतावता आत्मा में आत्मा की प्रीति भी स्वभाव-सिद्ध एवं नित्य है। सम्पूर्ण दृश्य-प्रपंच का बोध हो जाने पर अधिष्ठानभूत परब्रह्म के साक्षात्कार से स्वरूप-निष्ठा, आत्मरति उद्बृद्ध होती है जैसे शर्करा के सम्बन्ध से रूखे चणक-चूर्ण में भी मिठास आ जाती है, वैसे ही, रास-स्वरूप भगवान् के सम्बन्ध से वस्तुतः सत्यहीन, रसहीन एवं स्फुंरण-ही हीन जगत् में भी सत्यता एवं स्फूर्तिमत्ता की प्रतीति होने लगती है। तात्पर्य कि निःसत्त्व निःस्फूर्त एवं नीरस जगत् में भगवत्-सम्बन्ध से ही सत्त्व स्फुर्ति एवं रस प्रस्फुटित हुआ। आत्मरति के कारण भगवत्-स्वरूप में सरसता का प्रादुर्भाव हुआ। यह आत्मरति, आत्मप्रीति लौकिक रति-प्रीति से नितान्त विलक्षण एवं आत्म-स्वरूपभूता, आत्म-स्वरूप से अभिन्ना है। इस आत्मप्रीति, आत्मरति को लेकर ही मधुसूदन सरस्वती ने भक्तियोग का अलख जगाया। इस भक्तियोग में अनित्य एवं सतिशय प्रीति की कल्पना भी सम्भव नहीं। मधुसूदन सरस्वती के वचन हैं- ‘भगवान् परमानन्दस्वरूपः स्वयमेव हि। परमानन्दस्वरूप सच्चिदानन्दघन परब्रह्म ही भक्त के द्रवीभूत चित्त में प्रकट होकर भक्ति शब्द व्यपदेश्य बन जाते हैं। स्त्री-पुरुष रतिक्रियाभिलाष भी काम है तथा रतिक्रियाभिलाष से पृथक् सम्पूर्ण इच्छामात्र भी कामपद-वाच्य है। काम ही आकर्षण का कारण है। आकर्षण का मूल है रस। व्यापक है। रस के कारण ही अणु-अणु में आकर्षण होता है। दो अणुओं के मिलने से एक द्व्यणुक और तीन द्व्यणुको के मिलने से एक त्रसरेणु बनता है। यथाक्रम सृष्टि-रचना होती रहती है। |