गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 16‘कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मकणि च कर्म यः। अर्थात सामान्यतः कोई भी व्यक्ति सर्व कर्म नहीं कर सकता, उदाहरणत‘ यदि कोई ब्राह्मण है वह क्षत्रिय-कर्म नहीं कर सकता, क्षत्रिय है तो ब्राह्म्ण-कर्म नहीं कर सकता। तात्पर्य कि प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने वर्णाश्रम धर्मं, जाति-कुल आदि की विभिन्न मर्यादाओं से बँधा है। एकमात्र आपकी सर्वकर्म–कृत ज्ञान–विज्ञान की ही स्थिति ऐसी है जिसमें प्राणी सर्व–कर्म–कृत हो सकता है’ वही युक्त है। छान्दोग्य उपनिषद् का कथन है’ ‘कृताय विजिताय कृतजाय कृंतसंज्ञकः अयः द्यूतभागः जितः येन सः कृतायः। अर्थात् जैसे कोई द्यूत करता है; द्यूत में कलियुग, द्वापर पर दो, त्रेता और कृत-युग चार स्थान होते हैं। कलियुग पर एक अंक, द्वापर पर दो, त्रेता पर तीन और कुतयुग पर चार अंक होते हैं; कुल मिलाकर दस अंक हुए; जिसका पासा कृतयुग पर पड़ गया उसको दस अंकों का लाभ होता है। जिसने कृतसंज्ञक द्यूत को जीत लिया उसको कलि, द्वापर, श्रेतासंज्ञक द्यूत का भी फल मिल जाता है। यह उक्ति ‘सम्वर्ग’ विद्या के प्रसंग में की गई है। इस उक्ति का तात्पर्य है कि जो ‘सम्वर्ग विद्या’ को जान लेता है वह अन्य सम्पूर्ण ज्ञातव्य को जान लेता है। ‘सम्वर्ग’ विद्या ही प्राणविद्या है; इसके अन्तर्गत प्राण की उपासना की जाती है। अपर ब्रह्म ही प्राण है। ‘सम्वर्ग’ विद्या विशिष्ट महत्त्वमयी है एतावता ही राजा जानश्रुति पर अनुग्रह करने हेतु ऋषियों ने हंसरूप धारण कर सयुग्वा रैक्व से ‘सम्वर्ग’ विद्या ग्रहण करने के लिये प्रेरित किया।[3] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्री मद् गीता 4/18
- ↑ छा० 4/1/4
- ↑ पूर्व प्रसंग में 7वे श्लोक में राजा जानश्रुति एवं सयुग्वा रैक्व की कथा विस्तार-पूर्वक कही जा चुकी है।