गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 13“छन्दांस्ययातयामानि भवन्त्विह परत्र च”[1] वे छन्द अयातयाम होते हैं, सदा ताजा रहते हैं, वे कदापि गतरस, निःसार नहीं होते। भगवान बादरायण कहते हैं, “आवृत्तिरसकृदुपदेशात्”[2] अर्थात, तब तक धान को कूटना कर्तव्य है जब तक सम्पूर्ण भूसी न निकल जाय। तात्पर्य कि तब तक जगत्-स्वरूप का सम्यक्तः बाध न हो जाय तब तक भगवन्नाम की आवृत्ति करते रहना चाहिए। “रागु रोषु इरिषा मदु मोहू। जनि सपनेहुँ इनके बस होहु।”[3] हे पुत्र! तुम राघवेन्द्र रामचन्द्र के साथ वन में जा रहे हो; साथ रहते हुए यदा-कदा राग, द्वेष, ईर्ष्या आदि विभिन्न भावनाएँ उद्बुद्ध हो सकती हैं परन्तु तुम भूलकर इनके वशीभूत न होना। सम्पूर्ण विचारों के त्याग-पूर्वक, मनसा, वाचा, कर्मणा उनकी सेवा करना। इस सीख के अनन्तर माता आशीष, आशीर्वाद देती है, “तुलसी प्रभुहि सिख देइ आयसु दीन्ह पुनि आसिष दई। अर्थात, वेदान्तवेद्य सिय-रघुवीर-पद में हे पुत्र! तेरी रति अविरल हो तथा मेरे द्वारा प्रदत्त उपदेशों को कार्यान्वित करने में तू सदा समर्थ हो। महर्षि सन्दीपनि ने भी अपने शिष्य भगवान श्रीकृष्णचन्द्र को ‘आशिष’ देते हुए कहा- अर्थात, हे कृष्ण! जिन छन्दों का तुमने अध्ययन किया है वे लोक-परलोक में सदा-सर्वदा आयातयाम हों अर्थात, वीर्यवान् हों, समर्थहों। अन्ततोगत्वा तात्पर्य यह कि भगवत्-पदारविन्द-चिन्तन सम्पूर्ण आधि, मानसी पीड़ाओं का हर्ता है। एतावता गोपाङनाएँ प्रार्थना करती हैं कि हे रमण! जो पाद पंकज प्रणत-कामदं, पद्मजार्चितं, घरणिमंडनं, ध्येयमापदि, शंतमं एवं आविहन् हैं उनको हमारी उरोज-स्थली पर विन्यस्त करें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भा0 10/45/48
- ↑ ब्र0 सू0 4/1/1
- ↑ मानस, अयोध्या0 74/5
- ↑ मानस, अयोध्या0 74/छंद
- ↑ श्री0 भा0 10/45/48