गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 12अर्थात अनन्त सौन्दर्य-माधुर्यपूर्ण स्वच्छन्द वृन्दावन-धाम को अपने मंगलमय पादारविन्द के चिह्न के अंकित करने वाले मोर-मुकुट धारण किए, नट और वर के समान मनोरंजक तथा आकर्षक श्रृंगार किए, वैजयन्तीमाला पहने, कानों में कर्णिकार पहने, गोपवृन्द के संग, वेणु को अधर-सुधा से पूरित करते हुए, श्रीवृन्दारण्य धाम में पधारे। इस श्लोक में भगवान् के संप्रयोगात्मक-विप्र-योगात्मक उभयविध एक कालावन्छेदेन उद्वेलित श्रृंगार-रस-सार-सर्वस्व स्वरूप का ही वर्णन किया गया है। ‘नटवरपुः’ नटवत् वरवच्च वपुर्यस्य’ अर्थात नटवत् वरवत् है शरीर जिसका, वह नटवरवपुः। ‘नट’ पद से विप्र-योगात्मक-श्रृंगार परिलक्षित है क्योंकि अपने अभिनय द्वारा नट वस्तु के अभाव में उसकी अभिव्यंजना करता है। ‘वर’ पद का अर्थ है दूल्हा; वर प्रत्याग्-भोक्ता है; प्रत्यग-भोक्ता वर संप्रयोगात्मक-श्रृंगार-रस का प्रतिनिधित्व करता है; अस्तु संप्रयोगात्मक- विप्रयोगात्मक उभयविध एककालावच्छेदेन उद्वेलित श्रृंगार-रस-सार-सर्वस्व स्वरूप है जिसका वह ‘नटवरवपुः’ है ‘सकल-विरुद्ध घर्माश्रयत्वात् भगवत’ भगवान् सकल विरुद्ध धर्मों के आश्रय हैं; ‘महतो महीयान् अणोरणी-यान’ महत् से भी महत् साथ ही अणु से भी अणु हैं। रसिक हृदय पर ही रस का प्रभाव होता है; ‘सवासनानां सभ्यानां जो सभ्य हैं सवासन हैं; उन्हीं में रसाभिव्यक्ति संभव है; निर्वासनिक वेदान्ती तथा मीमांसक एवं वैयाकरण के हृदय में वैसी रसाभिव्यक्ति सम्भव ही नहीं होती।“ब्रीड़ा विलोडयति लुंचति धैर्यमार्य- एक अत्यन्त रसमयी कथा है; किसी दिन विलाप करते-करते राधा रानी को मूर्छा आने लगी; सखियाँ उपचार करने हेतु प्रयास करने लगीं; राधारानी ने कहा सखियो! हमारा पातिव्रत भंग हो गया है, हम अशुद्ध हो गयी हैं अतः आप लोग हमें न छुएँ।’ |