गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 263

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 7

यहाँ यह कहा जा सकता है कि ‘यतः’ जब इस पंचम्यन्त से भक्ति का कार्य-कारण-भाव निर्धारित है तब उसे अहैतुकी कैसे कहा जा सकता है? इसका समाधान है कि वास्तव में भक्ति का कारण बनता नहीं, भक्ति श्रद्धा-पुरस्सर है। ‘अत्र च प्रथमं महत्सेवा ततश्च तत्कृपा ततश्चतद्धर्मश्रद्धा ततो भगवत्कथा-श्रवणं ततोभगवति रतिस्तया च देहद्वयविवेकात्मज्ञानं ततो दृढा भक्ति स्ततो-भगवत्तत्त्वज्ञानं ततस्तत्कृपयासर्वज्ञत्वादि भगवद्गुणाविर्भावइतिक्रमो दर्शितः।’[1]

‘आदौ श्रद्धा ततः साधुसंगोथ भजनक्रिया।
ततोनर्थनिवृत्तिः स्या त्ततोनिष्ठा रुचिस्ततः।।
अथासक्तिस्ततोभाव स्ततः प्रेमाभ्युदंचति।
साधकानामयं प्रेम्णः प्रादुर्भावे भवेत्क्रमः।।’[2]

भगवत्-प्रेम प्राप्त करने के लिए साधक को क्रमशः महापुरुषों की सेवा, उनके धर्म में श्रद्धा, भगवत्-गुण-श्रवण में रति, स्वरूप-प्राप्ति, प्रेम-वृद्धि, भगवत्स्फूर्ति और भगवद्धर्म-निष्ठा आदि अपेक्षित है। श्रद्धा स्वयं ही भक्ति है अतः यहाँ हेतु-हेतु सद्भाव ही बनता है। साध्य-साधन रूप से भक्ति ही दो प्रकार की है; अवस्था भेद मात्र से ही साध्य-साधन-भाव सिद्ध होता है; जैसे पक्व आम्रफल का हेतु अपक्व आम्रफल ही है वैसे ही साध्य रूपा भक्ति के साथ साधन-रूपा भक्ति का साध्य-साधन भाव होता है। ‘भक्तया संजातया भक्तया’[3] भक्ति से ही भक्ति उत्पन्न होती है। रसात्मक-प्रेम रसस्वरूप ही है। यह रसात्मक-प्रेम अत्यन्त गोपनीय है; वाणी का विषय बनते ही प्रेम तुच्छ हो ही जाता है। यदा-कदा अस्त भी हो जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इति 1/5/34 इत्यत्र श्रीधरस्वामी
  2. हरिभक्ति रसामृत सिन्धु पूर्व 4/5-9
  3. श्रीमद् भागवत् 11/3/31

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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