गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 7यहाँ यह कहा जा सकता है कि ‘यतः’ जब इस पंचम्यन्त से भक्ति का कार्य-कारण-भाव निर्धारित है तब उसे अहैतुकी कैसे कहा जा सकता है? इसका समाधान है कि वास्तव में भक्ति का कारण बनता नहीं, भक्ति श्रद्धा-पुरस्सर है। ‘अत्र च प्रथमं महत्सेवा ततश्च तत्कृपा ततश्चतद्धर्मश्रद्धा ततो भगवत्कथा-श्रवणं ततोभगवति रतिस्तया च देहद्वयविवेकात्मज्ञानं ततो दृढा भक्ति स्ततो-भगवत्तत्त्वज्ञानं ततस्तत्कृपयासर्वज्ञत्वादि भगवद्गुणाविर्भावइतिक्रमो दर्शितः।’[1] ‘आदौ श्रद्धा ततः साधुसंगोथ भजनक्रिया। भगवत्-प्रेम प्राप्त करने के लिए साधक को क्रमशः महापुरुषों की सेवा, उनके धर्म में श्रद्धा, भगवत्-गुण-श्रवण में रति, स्वरूप-प्राप्ति, प्रेम-वृद्धि, भगवत्स्फूर्ति और भगवद्धर्म-निष्ठा आदि अपेक्षित है। श्रद्धा स्वयं ही भक्ति है अतः यहाँ हेतु-हेतु सद्भाव ही बनता है। साध्य-साधन रूप से भक्ति ही दो प्रकार की है; अवस्था भेद मात्र से ही साध्य-साधन-भाव सिद्ध होता है; जैसे पक्व आम्रफल का हेतु अपक्व आम्रफल ही है वैसे ही साध्य रूपा भक्ति के साथ साधन-रूपा भक्ति का साध्य-साधन भाव होता है। ‘भक्तया संजातया भक्तया’[3] भक्ति से ही भक्ति उत्पन्न होती है। रसात्मक-प्रेम रसस्वरूप ही है। यह रसात्मक-प्रेम अत्यन्त गोपनीय है; वाणी का विषय बनते ही प्रेम तुच्छ हो ही जाता है। यदा-कदा अस्त भी हो जाता है। |