गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 7ऐसा कथाओं का तात्पर्य है कि ‘यथात्मनि तथा देवे’- जो भाव, जो व्यवहार अपने में होता है वहीं देवता में होना उचित हैं। गोपांगनाओं का तत-सुख-सुखित्व भाव ही समर्थ-रति हैं जैसे कोई सती-साध्वी, पति-परायणा स्त्री यही समझती है कि मेरे बिना मेरे पति को कल नहीं पड़ती अथवा उनका काम नहीं चल सकता; वैसे ही समर्थ-रतिमति ये गोपांगनाएँ भगवान् श्रीकृष्ण के प्रेम में विभोर हो यही समझती हैं कि हमारे बिना हमारे श्यामसुन्दर, मदनमोहन को कल नहीं पड़ती; वे हमारे बिना नहीं रह सकते। अस्तु, वे कामना करती हैं कि हे कान्त! आप अपने पादारविन्दों को हमारे उर-स्थल में विराजमान करें। ‘प्रादुर्भावदिने न येनगणितो हेतुस्तनीयानपि। अर्थात, प्रादुर्भाव के समय जिसने सूक्ष्मातिसूक्ष्म हेतु की भी अपेक्षा नहीं की, जिसके स्वरूप में अपराध-परम्परा से क्षय किंवा प्रणाम-परम्परा से वृद्धि नहीं होती, जो अपने निजी रस-स्वाद की तुलना में अमृत-रस-स्वाद को भी तुच्छ कर देता है, जो जगती-दुःख-द्रोही है, तीनों लोक के दुःखों का विनाशक है उस परम गौरवशाली प्रेम-देवता को वाणी का विषय बनाकर तुच्छ क्यों कर दिया जाय। प्रेम हेतु-फलानुसंधानशून्य है। ‘स वै पंसां परोधर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे। अर्थात, भगवन्नामादि संकीर्तनादि लक्षणा-भक्ति ही पुरुषों का परम धर्म, परमोत्कृष्ट धर्म है जिससे अधोक्षज भगवान् में अेहतुकी, अप्रतिहता भक्ति होती है जिससे आत्मा का संप्रसाद होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्री. भा. 1/2/6