गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 6प्राणी मात्र से भगवद्-सख्य होते हुए भी अस्पष्ट है। जीव द्वारा सख्य-भाव से भगवदाश्रयण किये जाने पर भगवत्-सौहार्द भी प्रस्फुटित हो जाता है। भगवदाश्रयण ही मायायवनिका का अपसरण होता है; माया-यवनिका के अपसरण के सर्व-भूत-हितैषी, सर्व-सुहृद, सर्व-सखा भगवत् स्वरूप का साक्षात्कार होने लगता है। एक कथा है; भद्रतनु नामक एक व्यक्ति था; वह अत्यन्त दुराचारी एवं व्यसनी था तथापि किसी विशिष्ट जन्म-जन्मान्तर संस्कार एवं भगवद्नुग्रहवशात् उसका भगवत्-चरणारविन्दों में प्रेम, व्यसन हो गया। अब तो स्वयं भगवान् श्री मन्नारायण विष्णु-भक्ति वशीभूत हो अपने सखा भद्रतनु के संग खेलने प्रतिदिन वैकुण्ठ से पधारने लगे। इतने पर भद्रतनु दुर्बल ही होता जाता था। एक दिन भगवान् ने अपने सखा से उसकी दुर्बलता का कारण पूछा। वह कहने लगा ‘महाराज! मुझको सदा यही भय बना रहता है कि मैं ऐसा कोई अपराध न कर बैठूँ जिसके कारण आपके दर्शन दुर्लभ हो जाँय।’ भगवान् श्री मन्नारायण ने सखा को आश्वासन दिया, ‘सखे! डरो मत! एक बार किसी को स्वीकार कर लेने पर मैं उसको छोड़ता नहीं। ‘न स्मरत्यपकारणां शतमप्यात्मवत्तया। जीव द्वारा शत-शत अपकार बन जाने पर भी प्रभु उसका त्याग नहीं करते परन्तु एक उपकार से, मनसा-वाचा-कर्मणा एक बार पुकारने पर भगवन् दौड़े आते हैं। ‘रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरय सयं बार हिए की।। |