गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 241

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 6

गोपांगनाएँ पुनः अनुभव करती हैं कि मानों भगवान् श्रीकृष्ण कह रहे हैं, हे सखी जनो! आप के पास तो अनेक जलरूह विद्यमान हैं। आपने जलरूहमाला धारण कर रखी है; आपकी इस माला से ही आपके क्षत्-ताप का शमन हो जाना चाहिए था। दर्पण में आप अपना मुख-कमल का दर्शन कर ही आनन्दित हो लें; इतना ही नहीं, आपके हस्त भी, चरण भी सब तो कमल तुल्य मंजुल एवं मनोहर हैं। इतने पर भी आप लोग हमारे ही मुखारविन्द-दर्शन की कामना क्यों करती हैं? उत्तर देते हुए वे कह रही हैं, हे सखे! आप का जलरूहानन चारू है। आपके इस चारु जलरूहानन के अदर्शन से अन्य सम्पूर्ण जलरूह दुर्वार-मार के तीखे शर ही हो जाते हैं अतः उनके कारण तो शर-प्रहार तुल्य पीड़ा ही होती है। ‘विष-संयुत कर-निकर पसारी। जारत विरहवन्त नर नारी।’ आपके विप्रयोग में यह कुवलय-समूह ही कुन्तवन तुल्य, तीखे भालों के तुल्य ही हो जाते हैं।

‘कुवलय विपिन कुन्तवन सरिसा, वारिद तपत तेल जन बरिसा।
जेहितरुाहेउकरत सोइ पीरा, उरग स्वाससमत्रिविध समीरा।।’[1]

शीतल, मंद, सुगन्ध त्रिविध समीर सुख कारक ही होती है परन्तु प्रिय के विप्रयोग में प्रेमी के लिये सब विपरीत प्रतीत होने लगते हैं। हे सखे! आप के जलरूहानन के अदर्शन में हमारा अपना यह जलरूहानन-समूह भी दुःख-वृद्धि का ही कारण हो रहा है अतः कृपा करो ‘जलरूहाननं चारू दर्शन’, अपने मुख कमल का शीघ्र दर्शन दें। श्रुति वचनानुसार ‘द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिष्व जाते’।[2]
आप ही हमारे वस्तुतः सखा हैं ‘सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शांति-मृच्छति’[3]एकमात्र भगवान् ही सब प्राणियों के सुहृद् हैं इस तथ्य को जो जान लेता है वह शान्ति को प्राप्त हो जाता है। हे श्याम सुन्दर! आप तो प्राणी मात्र के सखा हैं परन्तु ‘विशेषतः नः अस्माकं सखा।’ विशेषतः हमारे ही सखा हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मानस सुन्दर 14। 3,4
  2. ऋ. स. 1। 164। 20
  3. श्री. भ. गी. 5। 29

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
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