गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 6श्रीकृष्ण-प्रेम में बावरी ये गोपालियाँ अपने जीवनधन, प्राणों के प्राण, श्यामसुन्दर के प्रति अनुरागरसपरिप्लुत, अनुरागाधिक्यजन्य प्रणय-कोप-रस-परिप्लुत वाणी का प्रयोग कर उनके कृपा-प्रसाद की ही आकांक्षा करती हैं। भगवान् श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण प्राणों के प्राण हैं; देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार का धारक प्राण ही सर्वाधिक प्रिय है। जो प्राणों का धारक, प्राणों का प्राण हो वही स्वभावतः ही प्रियतम है। ‘लोके न हि स विद्येत यो न राम-मनुव्रतः।’[1] संसार में ऐसा कोई पदार्थ नहीं जो राम का अनुव्रत नहीं है परन्तु कोई अभिज्ञ है, कोई अनभिज्ञ है। ‘प्रान प्रान के जीव के जिव सुख के सुख राम। योगवशिष्ठ में महर्षि वशिष्ठ काकभुशुण्डिजी के प्रति प्राणोपासना का उपदेश करते हैं। तदनुसार जैसे तरंग महासमुद्र से उत्थित होकर पुनः उसी में विलीन हो जाती है वैसे ही, प्राण एवं अपानरूप तरंग भी अचिन्त्य, अत्यन्ताबाध्य, अखंडमान, निर्विकार, स्वप्रकाश, बोधस्वरूप अनन्त महासमुद्र से उत्थित होकर पुनः उसी में समाविष्ट हो प्रशान्त हो जाती है। प्राणरूप तरंग के विलयन एवं अपानरूप तरंग की उत्पत्ति तथा अपानरूप तरंग के विलयन एवं प्राणरूप तरंग की उत्पत्ति के मध्यकाल, संधिकाल में प्राण के प्रशान्त हो जाने से मन भी प्रशान्त हो जाता है। प्राण के चांचल्य से ही मन चंचल होता है। |