गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 6श्रुतिरूपा, मुनिरूपा, अनन्य-पूर्विका, अन्य-पूर्विका, ऊढा-अनूढा, मुग्धा, मध्या, मानिनी आदि अनेक प्रकार की अपरिगणित अनन्त नायिकाओं के काम की पूर्ति किसी सामान्य जीव के लिए तो सर्वथा सम्भव ही नहीं, क्योंकि जीवमात्र अपूर्ण काम, अनाप्त काम है। स्वयं आप्तकाम, पूर्णकाम, परम-निष्काम ही इन असंख्य योषिताओं के अन्तस्थ काम को पूर्ण करने में समर्थ हैं। जिन विभिन्न कामों की पूर्ति ब्रह्मा भी नहीं कर पाते उन सम्पूर्ण कामों की पूर्ति अन्तस्थ आनन्द द्वारा हो जाती है। भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ही आनन्दरूप में प्राणिमात्र के अन्तस्थ हैं। श्रुति-वचन है, अर्थात, स्वयं आनन्दस्वरूप भगवान् से ही विश्व की उत्पत्ति होती है; आनन्द स्वरूप भगवान् में ही विश्व प्रतिष्ठित रहता है और आनन्द-स्वरूप भगवान् में ही प्रविलीन भी हो जाता है। भगवत्-स्वरूप भूत आनन्द प्राणिमात्र के हृदय में निवास करता है। भगवदनुग्रह से ही स्वान्तःस्थित आनन्द का प्रस्फुटन सम्भव है। यह अन्तःस्थित प्रस्फुटित होकर अन्तरात्मा, अन्तःकरण, प्राण एवं रोम-रोम में पूरित हो जाता है अतः अन्य क्षुद्र लौकिक आनन्द एवं काम के समावेश का अवकाश ही नहीं रह जाता। ‘आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्। |