गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 6गोपांगनाएँ भी कहती हैं- ‘यर्ह्यम्बुजाक्ष तव पादतलं रमाया, सम्पूर्ण श्लोक का अर्थ न कर हम केवल अपने प्रसंगानुसार ‘अस्प्राक्ष्म तत्प्रभृति’ अंश का ही विचार कर रहे हैं। गोपांगनाएँ अनुभव करती हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण कह रहे हैं, ‘हे सखी जनों! तुम्हारे इस स्मय-नाश-हेतु ही तो हम अन्तर्धान हुए हैं। इसका उत्तर देती हुई वे कहती हैं, ‘श्यामसुन्दर! जो गुड़ से ही मर जाय उसको विष क्यों दिया जाय? आपके अन्तर्धान होने से हमारे स्मय का नाश नहीं हो सकेगा! स्मय-नाश के लिए उसका कारण जानना उपयुक्त है। वल्लभाचार्यजी कहते हैं, ‘हासो जनोन्मादकरी च माया’[2] भगवान् का हास, मुक्तहास, प्रहास ही माया है। स्मय, मद-माया का ही कार्य है; माया के कारण ही उन्माद होता है, अतः हे सखे! आपके प्रहास के कारण ही हमें स्मय हुआ एतावता इस स्मय-नाश के लिए आपका स्मित ही पर्याप्त है। प्रहास का संकोच ही स्मित है। ‘निजजनानां स्मयस्य ध्वंसनं स्मितं यस्य। हे वीर योषितां सखे!’ निज जनों के स्मय, गर्व का हनन करने वाली आपकी मधुर मनोहर मुस्कान से ही हम प्रेयसी जनों का गर्व शमन जायगा। |