गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 222

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 6

गोपांगनाएँ भी कहती हैं-

‘यर्ह्यम्बुजाक्ष तव पादतलं रमाया,
दत्तक्षणं क्वचिदरण्यजनप्रियस्य।
अस्प्राक्ष्म तत्प्रभृति नान्यसमक्षमंग,
स्थातुं त्वयाऽभिरमिता बत पारयामः।।’[1]

सम्पूर्ण श्लोक का अर्थ न कर हम केवल अपने प्रसंगानुसार ‘अस्प्राक्ष्म तत्प्रभृति’ अंश का ही विचार कर रहे हैं।
गोपांगनाएँ कह रही हैं, हे प्रभो! आपके मंगलमय पाद-पंकज से संस्पर्श के अनन्तर किसी अन्य के समक्ष उपस्थित होने की कामना ही नहीं होती, तात्पर्य कि सर्वतो अलम् बुद्धि उद्बुद्ध हो गई है; एक बार जिस स्वरूप में निष्ठा हो गई, एक बार जिस पादपंकज का संस्पर्श मिल चुका है उससे अन्य किसी स्वरूप-दर्शन की, पादपंकज-संस्पर्श की कामना ही नहीं रह गई है। एतावता हे प्राणनाथ! ‘जलरुहाननं चारु दर्शय’ अपने मनोहर मंजुल कान्तिमान् मुख-कमल का दर्शन दें।

गोपांगनाएँ अनुभव करती हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण कह रहे हैं, ‘हे सखी जनों! तुम्हारे इस स्मय-नाश-हेतु ही तो हम अन्तर्धान हुए हैं। इसका उत्तर देती हुई वे कहती हैं, ‘श्यामसुन्दर! जो गुड़ से ही मर जाय उसको विष क्यों दिया जाय? आपके अन्तर्धान होने से हमारे स्मय का नाश नहीं हो सकेगा! स्मय-नाश के लिए उसका कारण जानना उपयुक्त है। वल्लभाचार्यजी कहते हैं, ‘हासो जनोन्मादकरी च माया’[2] भगवान् का हास, मुक्तहास, प्रहास ही माया है। स्मय, मद-माया का ही कार्य है; माया के कारण ही उन्माद होता है, अतः हे सखे! आपके प्रहास के कारण ही हमें स्मय हुआ एतावता इस स्मय-नाश के लिए आपका स्मित ही पर्याप्त है। प्रहास का संकोच ही स्मित है। ‘निजजनानां स्मयस्य ध्वंसनं स्मितं यस्य। हे वीर योषितां सखे!’ निज जनों के स्मय, गर्व का हनन करने वाली आपकी मधुर मनोहर मुस्कान से ही हम प्रेयसी जनों का गर्व शमन जायगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. 10। 29। 36
  2. श्रीमद्भा. 2। 1। 31

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
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2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
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